Chanakya Niti: इंसान हो या देवता क्यों वे उन्हीं वस्तुओं की ख्वाहिश रखते हैं, जो उनके पास नहीं होती जानें चाणक्य का जवाब!

  आचार्य चाणक्य (Chanakya) भारतीय इतिहास में एक कुशल राजनीतिज्ञअर्थशास्त्री और चतुर रणनीतिकार के रूप में जाने जाते हैं. उनकी नीतियां आज भी लोगों के जीवन में दिशा देने का काम करती हैं. आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति के पांचवें अध्याय के 18वें श्लोक के अनुसार स्वर्ग लोक हो या पृथ्वी लोक, हर कोई अपने वर्तमान से संतुष्ट नहीं हैं और कोई अपनी पसंद की किसी न किसी चीज़ को बेहतर मानते हैंया उसे हासिल करना चाहते हैं. आइये जानते हैं इस श्लोक के बारे में आचार्य चाणक्य क्या जाहिर करना चाहते हैं. यह भी पढ़ें : Hartalika Teej 2025: हरतालिका तीज व्रत क्यों रखा जाता है? जानें इसका महत्व, मुहूर्त, मंत्र एवं पूजा विधि इत्यादि के बारे में!

अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।।

मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः॥

अर्थात निर्धन व्यक्ति धन की लालसा रखते हैं. चार पैरों वाले पशु

मनुष्यों की तरह संवाद करने की क्षमता चाहते हैं. जबकि मनुष्य स्वर्ग जैसे दिव्य सुख की कामना करते हैं. यहां तक कि देवता भी मोक्ष यानी जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्ति की इच्छा रखते हैं.

 आचार्य चाणक्य अप्राप्त वस्तु के प्रति व्यक्तिमात्र की आसक्ति की प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि निर्धन व्यक्ति धन की कामना करते हैं और चौपाये अर्थात् पशु मनुष्य के सामान बात करने की चाहत रखते हैं. मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करता है और स्वर्ग में रहनेवाले देवता मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं और इस प्रकार जो प्राप्त है सभी उससे आगे की कामना करते हैं.

   वस्तुतः देखा जाए तो इस संसार में यह एक सरल-सा सत्य है कि जिस व्यक्ति के पास जिस वस्तु का अभाव होता हैवह उसे ही प्राप्त करना चाहता हैउसी की लालसा करता हैउसी को अधिक महत्त्व देता है. जैसे निर्धन व्यक्ति सबसे अधिक महत्त्व धन को देता है. वह उसकी प्राप्ति के लिए हमेशा व्याकुल रहता है. पशुओं के लिए सबसे बड़ा अभाव वाणी है. वे उसे पाने की लालसा रखते हैं. मनुष्य इस लोक की अपेक्षा स्वर्ग के स्वप्नों की कामना करता है और स्वर्ग में रहनेवाले देवता मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करते हैं.

   आचार्य चाणक्य के इस श्लोक का मूल भाव यही है कि इस संसार में सभी प्राणी किसी-न-किसी प्रकार के अभाव से पीड़ित हैं, जो कुछ उन्हें प्राप्त है, वे उसको महत्त्व न देकर सदा अप्राप्त वस्तु की कामना करते रहते हैं.