कंडा षष्ठी, जिसे ‘स्कंद षष्ठी’ या ‘सुरसम्हारम्’ के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म विशेषकर तमिलनाडु और श्रीलंका स्थिति हिंदुओं में पूरी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. यह पर्व भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र भगवान मुरुगन को समर्पित है, जिन्होंने इसी दिन राक्षस सुरपद्मन का संहार कर हिंदू धर्म की रक्षा की. इस पर्व के तहत भक्त 6 दिनों तक उपवास रखते हैं और भगवान मुरुगन से शक्ति, सुरक्षा और आध्यात्मिक उत्थान का आशीर्वाद मांगते हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष 27 अक्टूबर 2025, सोमवार को मनाई जाएगी. आइये जानते हैं इस पर्व के महत्व, मूल तिथि, मुहूर्त एवं पूजा विधि के बारे में... यह भी पढ़े : Sardar Patel’s 150th Jayanti 2025: क्या सरदार पटेल और पंडित नेहरू के बीच सब कुछ सामान्य था? जानें किन-किन मुद्दों पर था मतभेद!
कंडा षष्ठी मूल तिथि
कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी प्रारंभ: 06.04 AM (27 अक्टूबर 2025, सोमवार)
कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी समाप्त: 07.59 AM (28 अक्टूबर 2025, मंगलवार)
उदया तिथि के अनुसार इस वर्ष कंडा षष्ठी का पर्व 27 अक्टूबर को मनाया जाएगा
कंडा षष्ठी और सुरसम्हारम् का महत्व
सुरसम्हारम की कथा भगवान मुरुगन और राक्षस सुरपद्मन के बीच हुए युद्ध पर केंद्रित है. सुरसंहारम एक अहंकारी औऱ अज्ञानी राक्षस था. पौराणिक कथा के अनुसार भगवान मुरुगन और राक्षस राजा सुरपद्मन के बीच करीब 6 दिनों तक भीषण युद्ध चला था,अंततः भगवान मुरुगन ने राक्षस राज सुरसंहारम का संहार कर ब्रह्मांड में शांति और धर्म की स्थापना की. इस विजय दिवस को कंडा षष्ठी के रूप में भक्ति और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, जहां भक्त नकारात्मकता को दूर करने और धर्म की ओर मार्गदर्शन करने के लिए भगवान मुरुगन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. यह पर्व भक्तों में विश्वास, साहस और नैतिक अनुशासन की भी प्रेरणा देता है.
कंडा षष्ठी सेलिब्रेशन
स्कंद षष्ठी पर्व पर श्रद्धालु 6 दिन का उपवास रखते हैं, जो कार्तिक माह के पहले दिन पिरथामई से शुरू होता है और छठे दिन सूर्यसंहारम् पर समाप्त होता है. श्रद्धालु इस पर्व का सच्ची आस्था से पालन करते हैं, प्रार्थना करते हैं, कंडा षष्ठी कवचम् भजन गाते हैं. इस दिन रखे जानेवाले उपवास को शुद्धिकरण और भगवान मुरुगन की दिव्य इच्छा के प्रति समर्पण के रूप में देखा जाता है. इस उत्सव का मुख्य आकर्षण सूरसंहारम है, जिसे तमिलनाडु के तमाम मंदिरों में नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया जाता है और राक्षस सुरपद्मन के विनाश का चित्रण किया जाता है. अगले दिन, तिरुकल्याणम, या भगवान मुरुगन और देवसेना का दिव्य विवाहोत्सव मनाया जाता है, जो सद्भाव और दिव्य कृपा का प्रतीक है. गौरतलब है कि सूरसम्हारम व्रत के लिए दिन का चुनाव करते समय पंचमी और षष्ठी तिथि एक साथ जुड़ी होती है, इसलिए, यदि षष्ठी तिथि पंचमी तिथि पर सूर्यास्त से पूर्व शुरू होती है, तो सभी मंदिर कांडा षष्ठी का पालन करते हैं.












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