
International Widows Day 2025: ‘सदा सुहागन रहो’ ये आशीर्वाद आज भी भारतीय समाज में महिलाओं के लिए सबसे सम्मानजनक माना जाता है, लेकिन प्रश्न उठता है कि अगर किसी महिला का सुहाग छिन जाए तो क्या उसका अस्तित्व भी समाज की नजरों में खो जाता है? आज अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस (International Widows Day) (23 जून 2025) के अवसर पर हम जानने की कोशिश करेंगे कि हमारे सभ्य समाज में और विकसित परिस्थितियों के बीच क्या ‘विधवा’ (Widows) शब्द से जुड़ी सामाजिक मानसिकता में भी कुछ बदलाव आया है… यह भी पढ़ें: World Day Against Child Labour 2025: बच्चों से काम नहीं उनका बचपन चाहिए! जानें क्या है बाल श्रम की मूल समस्या?
क्या है विधवा दिवस?
अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस एक वैश्विक अवसर है, जो दुनिया भर में विधवाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए समर्पित है. यह दिन भेदभाव, गरीबी और सामाजिक अलगाव को उजागर करता है, जिसे तमाम विधवाएं आये दिन झेलती हैं, खासकर विकासशील देशों में. यह विधवाओं को सम्मान और सुरक्षा के साथ जीने के लिए मजबूत कानूनी सुरक्षा और सामाजिक सहायता प्रणाली की भी मांग करता है.
‘विधवा’ शब्द के पीछे छिपा कलंक या पीड़ा!
भारत जैसे देश में जहां स्त्री को ‘देवी’ और ‘शक्ति’ आदि का दर्जा दिया जाता है, लेकिन पति की मृत्यु के बाद वही स्त्री, वही शक्ति अपवित्र, अशुभ और समाज के लिए ‘कलंक’ मान ली जाती है. भारत के अधिकांश जगहों पर विधवा महिलाओं को रंगीन कपड़े पहनने की मनाही, शृंगार पर रोक, तीज-त्योहारों तथा शुभ-मंगल कार्यों से विलग रखने की परंपराएं आज भी आसानी से देखने को मिल जाती है.
किस्सा आधे-अधूरे बदलाव की
पिछले दो दशकों में मीडिया, कानून, प्रशासन और शिक्षा ने मिलकर विधवा महिलाओं के प्रति परिवार-समाज में व्याप्त मानसिकता को बदलने की कोशिश की है. शहरी इलाकों में आज विधवाएं पारिवारिक बाधाओं को पार कर नौकरी कर रही हैं, बच्चों को पालती हैं, सामाजिक आयोजनों में हिस्सा लेती हैं, और कई जगहों पर पुनर्विवाह की खबरें सुनने-देखने को मिलती है. लेकिन ये बदलाव सभी तबकों विशेष रूप से राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश अपेक्षित रूप से नहीं पहुंच पाया है. ग्रामीण क्षेत्रों, पारंपरिक परिवारों और अशिक्षित समाज में आज भी विधवा होना एक सामाजिक मृत्यु जैसा है.
मीडिया कहां हो रही है चूक?
समस्या सिर्फ परंपराओं में नहीं, सोच और मानसिक विरासत में है. आज भी एक महिला की पहचान उसके पति से जोड़ी जाती है, जैसे उसके अस्तित्व का केंद्र केवल उसका पति हो, उसकी अपनी पहचान अपनी अहमियत कुछ भी नहीं है. पति के दिवंगत होते ही उसका सारा मान-सम्मान छिन जाता है हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि पति का समय-असमय देहावसान पत्नी के नैतिक अधिकारों या गरिमा को छीन नहीं सकता.
मीडिया और सिनेमा का दोगला रवैया
एक तरफ आधुनिक सिनेमा (अगर पुराने सिनेमा को अपवाद मान लें) विधवाओं को मजबूत, आत्मनिर्भर और जुझारु रूप में दिखा रहा है, वहीं टीवी धारावाहिकों में आज भी विधवाओं को अपशकुनी, बेवा, अशुभ एवं काली अथवा सफेद साड़ी में लिपटा दिखाया जाता है. तमाम तरह की प्रताड़नाएं दी जाती हैं. हैरानी की बात यह कि विधवाओं को प्रताड़ित घर की महिला सदस्य द्वारा किया जाता है.