भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थकर माने जाते हैं, उन्होंने अज्ञान, आडंबर, अंधकार और क्रिया क्रम के मध्य में क्रांति का बीज बनकर जन्म लिया था. जैन धर्मानुसार पार्श्वनाथ को तीर्थकंर बनने के लिए 9 बार जन्म लेने पड़े थे. पूर्व जन्म में किये पुण्य कार्यों और दसवें जन्म के कठोर तप के बाद ही वे 23वें तीर्थंकर बनें थे. मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथ के गणधरों की कुल संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी इनके पहले गणधर थे, और इनके प्रथम आर्य का नाम पुष्पचुड़ा था. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष भगवान पार्श्वनाथ की जयंती आज यानी 8 जनवरी 2021 को मनायी जायेगी. आइये जानें कैसे एक युवा राजकुमार भगवान पार्श्वनाथ के रूप में पूजा जाने लगा.
कौन थे पार्श्वनाथ
जैन धर्म के मतानुसार भगवान पार्श्वनाथ जी का जन्म अरिष्टनेमि के लगभग एक हजार वर्ष पश्चात इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृष्णपक्ष की दशमी को विशाखा नक्षत्र में उत्तर प्रदेश के बनारस (वाराणसी) में हुआ था. उनके पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे, जिनकी पत्नी का नाम वामादेवी था. पार्श्वनाथ बचपन से ही चिंतनशील और दयालु स्वभाव के थे. काफी कम उम्र में वे सभी विद्याओं में प्रवीण हो गये थे. दिगंबर धर्म के मतावलंबियों की मानें तो भगवान पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, वहीं श्वेतांबर मतावलंबियों का एक धड़ा उन्हें विवाहित मानता है. इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि, माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते हैं. राजा के घर में जन्म लेने के कारण पार्श्वनाथ का बचपन राजसी वैभव एवं ठाट-बाट से बीता था.
ऐसे हुई पार्श्वनाथ की जीवन-मृत्यु से विरक्ति?
पार्श्वनाथ जब 16 वर्ष के थे, एक दिन वन में भ्रमण करते समय उन्होंने एक तपस्वी महिपाल को एक वृक्ष को कुल्हाड़ी से काटते हुए देखा, तो उन्होंने उसे रोकते हुए कहा, कि वृक्ष काटकर उन मासूम जीवों को मत मारों, इस पर तपस्वी ने कहा कि मैं तो तप के लिए लकड़ियां काट रहा हूं. पार्श्वनाथ ने उसे बताया कि वृक्ष के भीतर एक नाग-नागिन का जोड़ा भी रहता है. महिपाल ने पार्श्वनाथ की तरफ देखते हुए व्यंग्य कसा, लड़के तू क्या त्रिकालदर्शी है? उसी समय रक्त से लथपथ एक नाग-नागिन कटे हुए तने से बाहर आ गिरे. युवा पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन के सामने 'णमो' मंत्र का उच्चारण किया, जिससे सांपों के इस जोड़े की पीड़ा कम हुई. लेकिन इस घटना पार्श्वनाथ सांसारिक मोह-माया और जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई, उन्होंने निर्णय लिया कि वे कुछ करेंगे कि जीवन-मृत्यु के बंधनों से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके.
जब उन्हें अपने पूर्व जन्मों की याद आयी
एक बार पार्श्वनाथ की 30वीं वर्षगांठ पर तमाम राजा उन्हें उपहार दे रहे थे. उपहार स्वीकारते हुए पार्श्वनाथ सभी से उनके नगर के बारे जानकारी ले रहे थे. इसी क्रम में अयोध्या के दूत ने अयोध्या का हालचाल बताते हुए कहा,- 'जिस नगर में ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे तीर्थंकरों ने जन्म लिया है, वहां की महिमा तो अपरंपार ही होगा. वहां तो कण-कण में पुण्य बिखरा पड़ा है. दूत की बात सुनते ही पार्श्वनाथ को अपने पूर्व नौ जन्मों का ध्यान हो आया. उन्होंने सोचा कि इतने जन्म उन्होंने यूं ही गंवा दिए. अब तो आत्म कल्याण का समय है. उन्होंने मुनि-दीक्षा लेकर वन में तप करने चले गये.
इस तरह बनें 23वें तीर्थंकर
84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही 'घातकी वृक्ष' के नीचे इन्होनें 'कैवल्य ज्ञान' को प्राप्त किया और वे तीर्थंकर बन गए. जैन धर्म के मतानुसार पार्श्वनाथ सौ वर्ष तक जीवित रहे. तीर्थंकर बनने के बाद उनका जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में गुजरा. श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ.