पौष मास कृष्ण पक्ष की एकादशी को भगवान श्री पार्श्वनाथ की जयंती मनाई जाती है. मान्यता है कि वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर लगभग 83 दिनों तक कठोर तपस्या के पश्चात पार्श्वनाथ को कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर देवत्व को प्राप्त हुए.
जैन धर्म के प्रमुख पर्वों में एक है भगवान पार्श्वनाथ जयंती. जैन संप्रदाय के लोग इस पर्व को बड़ी धूमधाम के साथ मनाते हैं. जैन मताधिकारियों के अनुसार 23वें तीर्थंकर के रूप में पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था, जिन्होंने अज्ञान, अंधकार, आडंबर और क्रियाकाण्ड के विरुद्ध क्रांतिकारी के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए थे. पार्श्वनाथ का जन्म अरिष्टनेमि के एक हजार वर्ष बाद इक्ष्वांकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में काशी (वाराणसी) में हुआ था. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 7 जनवरी 2024 को मनाया जाएगा. आइये जानते हैं पार्श्वनाथ जयंती के संदर्भ में कुछ ज्ञानवर्धक एवं रोचक बातें.
दसवां जन्म लेकर बनें 23वें तीर्थंकर
जैन धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ को तीर्थंकर बनने के लिए नौ जन्म लेने पड़े थे. पूर्व जन्म के पुण्य कर्म करने और तमाम तप-त्याग के पश्चात 10वें जन्म में वह तीर्थंकर बने. जैन पुराणों में उल्लेखित है कि भगवान पार्श्वनाथ पहले जन्म में मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में राजा रश्मिवेग, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में चक्रवर्ती सम्राट वज्रनाभि, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में राजा आनंद, नौवें जन्म में देवराज इंद्र बनें. इसके पश्चात दसवें जन्म में तीर्थंकर के रूप में जन्म लिया था.
पार्श्वनाथ के शरीर पर सर्प के निशान
माना जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ के जन्म से पूर्व माँ वामा देवी ने गर्भकाल के दौरान स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए कहा जाता है कि इसी कारण पार्श्वनाथ का जन्म होने के बाद उनके शरीर पर सर्प के चिह्न अंकित थे. गौरतलब है कि भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में एक दिन राजसभा में ‘ऋषभदेव चरित’ सुनकर वैराग्य हो गया, और घर-संसार त्याग कर संन्यासी बन गये थे.
काशी में कठोर तप
प्राप्त तथ्यों के अनुसार काशी (अब वाराणसी) के सम्मेद पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ ने करीब 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई. कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात 70 वर्षों तक पार्श्वनाथ जी ने लोगों को चातुर्याम यानि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रहकी शिक्षा दी और अपने मत एवं विचारों का प्रचार-प्रसार किया.
अहिंसा सबके जीने का अधिकार
कहते हैं कि भगवान पार्श्वनाथ ने पौष माह कृष्ण पक्ष की एकादशी को काशी में दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात खीर खाकर व्रत का पारण किया था. 84 दिन तक कठोर तपस्या के बाद चैत्र मास कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को काशी स्थित 'घातकी वृक्ष' के नीचे 'कैवल्य ज्ञान' को प्राप्त किया. भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण पारसनाथ पहाड़ पर हुआ था. पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया. अहिंसा सबके जीने का अधिकार है, उन्होंने इसे प्रमाणित भी किया था.