मुंबई, 8 सितंबर: 7 सितंबर अनंत चतुर्दशी को मुंबई में गणेश विसर्जन हुआ. लेकिन लाल बाग़ के राजा का विसर्जन देखने के लिए पूरी मुंबई इंतजार कर रही थी. लेकिन इस बार बाप्पा के विसर्जन में 12 घंटे की देरी हो गई. हजारों श्रद्धालु 'लालबागचा राजा' के विसर्जन दर्शन के लिए समुद्र किनारे लाखों की मात्रा में एकत्रित हुए थे. लालबाग के राजा का विसर्जन रविवार, 7 सितंबर को देर रात 33 घंटे बाद हुआ. यह पहली बार है जब विसर्जन में इतनी देरी हुई है और कई लोगों ने इस पर अपनी नाराजगी जताई है. खासकर सोशल मीडिया पर, इस मुद्दे पर लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की. लोगों का कहना है कि बाप्पा ने खुद लालबाग के राजा मंडल के कार्यकर्ताओं को उनकी करतूतों की सज़ा दी है. यह भी पढ़ें: Lalbaugcha Raja Immersion Live: लालबागचा राजा की विदाई, मुकेश अंबानी के बेटे अनंत ने भी जुलूस में लिया भाग, देखें VIDEO
प्राचीन समय से लाल बाग़ के राजा के विसर्जन में कोली समाज की पारंपरिक भूमिका रही है. लाल बाग़ के राजा मंडल द्वारा विसर्जन के लिए गुजरात से मूर्ति को विसर्जन के लिए एक नया, बड़े आकार का राफ्ट मंगाया गया. जिसके बाद लालबागचा राजा मंडल की उन कोली बंधुओं ने कड़ी आलोचना की है, जो सालों से इस गणेश प्रतिमा की आम भक्तों की तरह सेवा करते आ रहे हैं. लालबागचा राजा का कई सालों से विसर्जन कर रहे कोली बंधु हीरालाल वाडकर ने कहा है कि अगर विसर्जन के लिए आधुनिक तकनीक की जगह कोली बंधुओं की पुरानी तकनीक का इस्तेमाल किया गया होता, तो यह नौबत ही नहीं आती.
लाल बाग़ के राजा का विसर्जन
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हिरालाल वाडकर ने लालबाग़ मंडल की आलोचना की
लालबागचा राजा और कोली समाज में का संबंध?
लालबागचा राजा, मुंबई के लालबाग इलाके में स्थापित भगवान गणेश की बहुत ही प्रसिद्ध सार्वजनिक मूर्ति है, जो गणेशोत्सव के दस दिनों तक भक्तों के दर्शन के लिए रखी जाती है. उत्सव की समाप्ति पर इस मूर्ति का भव्य विसर्जन गिरगांव चौपाटी पर अरब सागर में किया जाता है. लेकिन इस विशाल आयोजन की जड़ें केवल आस्था में नहीं, बल्कि स्थानीय कोली समाज और मछुआरा समुदाय के संघर्ष, संकल्प और सांस्कृतिक योगदान में भी गहराई से जुड़ी हैं.
लालबागचा राजा की शुरुआत को समझने के लिए हमें 1930 के दशक के लालबाग की ओर लौटना होगा. उस समय यह इलाका मुख्य रूप से मिल मजदूरों, मछुआरों और विक्रेताओं से बसा था. जब 1932 में पेरू चॉल का बाज़ार बंद हुआ, तो कोली समुदाय और अन्य स्थानीय विक्रेता अपनी रोज़ी-रोटी से जुड़ी गंभीर कठिनाइयों का सामना करने लगे. खुले मैदान में व्यापार करना पड़ता था, जहां सुविधाओं का अभाव था. इन हालातों में कोली मछुआरों और विक्रेताओं ने भगवान गणेश से प्रार्थना की, कि उन्हें अपने बाज़ार के लिए एक स्थायी स्थान मिले. कहा जाता है कि उनकी मन्नत कबूल हुई जब राजाबाई तैय्यबली, स्थानीय मकान मालिक, ने बाजार के लिए एक जमीन दान करने पर सहमति जताई.
इस पहल में कुँवरजी जेठाभाई शाह, श्यामराव विष्णु बोधे, वी.बी. कोरगांवकर, रामचंद्र तावटे, नखवा कोकम मामा, भाऊसाहेब शिंदे, यू.ए. राव और अन्य स्थानीय लोगों ने भी सहयोग किया. इस तरह यह जगह विकसित होकर 'लालबाग मार्केट' बनी और यहीं से शुरू हुआ लालबागचा राजा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल, जिसकी स्थापना 1934 में कोली समाज के सदस्यों द्वारा की गई थी. यह इतिहास केवल एक मूर्ति या मंडल की कहानी नहीं है, बल्कि यह मुंबई के एक समुदाय की संघर्ष, श्रद्धा और सामूहिक प्रयास की मिसाल है. जो आज भी हर साल विसर्जन के दौरान जीवंत हो उठती है, जब कोली समाज उसी समर्पण से ‘राजा’ को अंतिम विदाई देता है.
लालबागचा राजा का इतिहास..
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12 सितंबर 1934 को कोली समाज के मछुआरों और व्यापारियों ने अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर कृतज्ञता स्वरूप भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित की. इस प्रथम मूर्ति को मछुआरों की पारंपरिक पोशाक पहनाई गई थी. एक परंपरा जो गणपति के स्थानीय और सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाती है. समय के साथ, लालबाग में विराजमान यह गणेश मूर्ति भक्तों की मनोकामना पूरी करने वाली मानी जाने लगी और उसे लोकप्रिय रूप से "नवसाचा गणपति" कहा जाने लगा. यानी वो देवता जो सच्ची मन्नतें जरूर पूरी करते हैं. यही आस्था आज भी हर वर्ष लाखों श्रद्धालुओं को लालबागचा राजा के दर्शन के लिए आकर्षित करती है.
1935 से, कांबली परिवार लगातार लालबागचा राजा की मूर्ति का निर्माण करता आ रहा है. उनकी मूर्ति की विशिष्ट डिजाइन पतले चेहरे, मानवीय भाव-भंगिमा और भव्य सिंहासन पर विराजमान स्वरूप ने इसे एक विशिष्ट पहचान दी है, जिसे पेटेंट कराया गया है,
हर वर्ष, पारंपरिक रूप से लगभग 19 फीट ऊंची इस मूर्ति को गिरगांव चौपाटी पर विसर्जन के लिए समुद्र तक ले जाने हेतु एक यंत्रीकृत बेड़े (mechanised float) का उपयोग किया जाता है. हालांकि इस वर्ष, मंडल ने एक नया विद्युत-चालित बेड़ा (Electric Float) मंगाया था, जो पर्यावरण और संचालन की दृष्टि से एक नई पहल है. लेकिन कमर तक गहरे समुद्र में तेज़ धाराओं के बीच, स्वयंसेवकों को मूर्ति को ट्रॉली से बेड़े तक पहुंचाने में काफी संघर्ष करना पड़ा, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि श्रद्धा के साथ सेवा का समर्पण भी इस महाअनुष्ठान का एक अहम हिस्सा है.













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