देश की खबरें | एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के मुद्दे को वृहद पीठ को भेजना ‘त्रुटिपूर्ण’ : न्यायमूर्ति सूर्यकांत

नयी दिल्ली, आठ नवंबर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के मुद्दे को दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा एक वृहद पीठ को भेजे जाने को ‘‘त्रुटिपूर्ण’’ करार देते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्य कांत ने कहा है कि इसने ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ के रूप में प्रधान न्यायाधीश का प्राधिकार कमतर किया।

‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ होने के नाते प्रधान न्यायाधीश, अन्य न्यायाधीशों को मामले आवंटित करते हैं और उनकी सुनवाई के लिए पीठ गठित करते हैं।

शीर्ष अदालत के दो न्यायाधीशों की एक पीठ ने 1981 में, 1967 के निर्णय के सही होने पर सवाल उठाया था। उस निर्णय में एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना गया था क्योंकि इसकी स्थापना एक केंद्रीय कानून से हुई और मुद्दे को फैसले के लिए एक वृहद पीठ को भेज दिया था।

पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में 1967 का फैसला दिया था।

न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि अजीज बाशा मामले में निर्णय को पुनर्विचार के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ को 1981 में भेजा जाना ‘‘त्रुटिपूर्ण था और इसे निरस्त किया जाए।’’

उन्होंने एक अन्य संविधान पीठ के आदेश का संदर्भ देते हुए कहा कि ‘‘दो न्यायाधीशों की एक पीठ के पास वृहद पीठ के निर्णय पर संदेह जताने या असहमत होने’’ और मामला अधिक संख्या वाले न्यायाधीशों की पीठ को सीधे भेजने का कोई अधिकार नहीं है।

न्यायमूर्ति कांत ने कहा, ‘‘1981 में, दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा मामले को वृहद पीठ को भेजा जाना कुछ और नहीं, बल्कि प्रधान न्यायाधीश के अधिकार को चुनौती देना और संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत उन्हें (प्रधान न्यायाधीश को) प्राप्त विशेष शक्तियों का हनन है...।’’ उन्होंने कहा कि यह स्वीकार्य नहीं है।

न्यायमूर्ति कांत उस सात सदस्यीय संविधान पीठ का हिस्सा हैं जिसने 1967 के फैसले को पलटने वाला 4:3 के बहुमत वाला फैसला दिया।

बहुमत वाला फैसला प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने लिखा। इसमें कहा गया है कि एक नियमित पीठ एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा से जुड़े मुद्दे पर फैसला करेगी।

न्यायमूर्ति कांत ने 102 पृष्ठों के अपने अलग विचार में कहा कि 1981 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने विशेष रूप से कहा था कि अजीज बाशा फैसले की समीक्षा कर रही वृहद पीठ में सात न्यायाधीश होने चाहिए।

उन्होंने कहा, ‘‘इस तरह का संदर्भ, हमारे विचार से स्थापित नियमों के अनुरूप नहीं है...।’’

न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि इस तरह, उनका मानना है कि प्रधान न्यायाधीश अकेले प्राधिकार के संरक्षक हैं, पीठों की सदस्य संख्या को निर्धारित करते हैं और जिस किसी पीठ को उपयुक्त समझते हैं उसे मामले सौंपते हैं।

न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि संविधान लागू होने से पूर्व स्थापित अल्पसंख्यक संस्थान भी संविधान के अनुच्छेद 30 द्वारा संरक्षण प्राप्त करने का हकदार है।

यह अनुच्छेद अल्पसंख्कों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना एवं संचालन का अधिकार देता है।

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