कुंभ 2019: इस वजह से 12 वर्षों बाद लगता है कुंभ मेला, पवित्र स्नान से धुल जाते है सारे पाप
कुंभ मेला (File Photo)

Kumbh Mela 2019: 12 वर्षों के अंतराल पर आनेवाला कुंभ (Kumbh) दुनिया के सबसे बड़े मेले के रूप में विख्यात है. इस अवसर पर देश-विदेश से करोड़ों श्रद्धालु और पर्यटक दिव्य उत्सव की छटा देखने आते हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में 12 वर्ष के अंतराल पर मनाये जाने वाले इस आध्यात्मिक उत्सव की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस संदर्भ में कोई प्रमाणिक और ऐतिहासिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि चीनी बौद्ध यात्री ह्वेन त्सांग जब भारत प्रवास के दौरान प्रयाग (प्रयागराज) आए तब, उन्होंने वहां कुंभ स्नान किया था. इस मेले का आयोजन हिंदू सम्राट हर्षवर्धन ने किया था. हर्षवर्धन का कार्यकाल 590 से 647 ई तक था. ह्वेन त्सांग ने अपनी पुस्तक ‘सी यूकी’ में अपनी भारत यात्रा के सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्रिया कलापों का उल्लेख करते हुए प्रयाग के विश्व प्रसिद्ध मेला कुंभ और कुंभ स्नान के आध्यात्मिक प्रभाव का भी उल्लेख किया है. इस तरह कयास लगाया जा सकता है कि कुंभ मेले की शुरुआत सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में हुई होगी. कुंभ के महात्म्य का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सदियों से इस महोत्सव पर करोड़ों श्रद्धालु जनवरी-फरवरी की ठिठुरती सर्दी में गंगा यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी में डुबकी लगाकर खुद को धन्य महसूस करते हैं.

कुंभ और समुद्र मंथन-

जहां तक इस महापर्व के आध्यात्मिक संबंधों की बात है, तो हिंदू धर्म के आध्यात्मिक ग्रंथों में कुंभ उत्सव को लेकर कुछ पौराणिक कथाएं बहुत लोकप्रिय हैं. ऐसी ही एक कथा सागर मंथन की है. यह भी पढ़े- कुंभ 2019 : कैशलेस होगा कुंभ मेला, पे टीएम और स्वाइप मशीन के जरिए दक्षिणा लेंगे पंडा

कहते हैं कि एक बार राजा इंद्र के आतिथ्य से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा ने उन्हें अपनी प्रिय माला भेंट कर दी. इंद्र ने उस माला को स्नेहवश अपने ऐरावत हाथी को पहना दिया. ऐरावत ने माला को गिराकर पैरों से तोड़ दिया. अपने भेंट का इस तरह अपमान होते देख महर्षि दुर्वासा कुपित हो उठे. उन्होंने इंद्र को शक्तिविहीन होने का शाप दे दिया. यह बात जब दैत्यों को पता चली तो उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर स्वर्गलोक पर कब्जा कर लिया. दैत्यों द्वारा स्वर्ग से भगाये जाने के बाद इंद्र अपने सभी देवतागणों के साथ भगवान विष्णु के पास पहुंचे. इंद्र की व्यथा सुन भगवान विष्णु ने उन्हें क्षीर सागर मंथन कर अमृत निकालने का सुझाव देते हुए कहा, तब तक दैत्यों के साथ मिल कर रहने का प्रयास करें. भगवान विष्णु की योजनानुसार अमृतपान कर देवता हमेशा के लिए अमर हो जाते. दैत्य विष्णु की मंशा नहीं समझ सके. अमृत पीकर अमर हो जाने की लालच में वे देवताओं के साथ समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गये. समुद्र मंथन के अंतिम दिन अमृत कुंभ (कलश) निकलते ही इंद्र के इशारे पर उनका पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर आकाश में उड़ गया. अंततः दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य अपनी दिव्य शक्ति से देवताओं और विष्णु की मंशा समझ गये. उन्होंने दैत्यों को जयंत का पीछा कर अमृत कुंभ छीनकर लाने का आदेश दिया. अमृत कुंभ के लिए दैत्य और देवताओं के बीच बारह दिनों तक संघर्ष चला. इस दौरान अमृत कुंभ की छीना झपटी के बीच कुंभ से अमृत की कुछ बूंदें छलक कर जिन चार स्थानों पर गिरीं, वे थे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक.

अंततः युद्ध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु मोहिनी के रूप में प्रकट हुए. उन्होंने दैत्यों को अपनी माया से मदहोश कर सारा अमृत देवताओं को पिला दिया. अमृत कुंभ के लिए देवताओं और दैत्यों में बारह दिनों तक अनवरत युद्ध हुआ था. शास्त्रों में उल्लेखित है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवलोक के एक दिन के समान होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का लगता है. ऐसी भी मान्यता है कि 144 वर्षों के अंतराल में स्वर्ग में भी कुंभ लगता है, उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ लगता है. इस महाकुंभ का आयोजन केवल प्रयागराज ही होता है.

कब होता है कुंभ-

कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है. जहां तक प्रयागराज के कुंभ की बात है, तो माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में प्रवेश करते हैं और गुरू मेष राशि में होता है तभी कुंभ लगता है. यहां कुंभ का आयोजन मकर संक्रांति के दिन शुरु होता है. मकर संक्रांति के इस योग को कुंभ स्नान का योग भी कहा जाता है. प्रयाग का महाकुम्भ मेला अन्य कुंभ मेलों की तुलना में ज्यादा महत्व रखता है. इसी तरह हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में अलग-अलग ग्रहों का मेल होने पर ही यहां कुंभ लगता है.

प्रयागराज कुंभ का विशेष महत्व-

प्रयागराज के कुंभ की विशेष महिमा है क्योंकि हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में प्रत्येक बारह वर्ष के अंतराल पर कुंभ का आयोजन होता है, जबकि प्रयागराज में बारह वर्ष में कुंभ तथा छह वर्ष के अंतराल पर अर्धकुंभ लगता है. ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यहीं पर अश्वमेघ यज्ञ किया था. दशाश्वमेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरूप आज भी प्रयागराज में देखे जा सकते हैं. इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है.

कूर्म पुराण के अनुसार कुंभ पर प्रयागराज की त्रिवेणी में स्नान करने से सभी पापों का विनाश होता है और मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है. भविष्य पुराण के अनुसार कुंभ स्नान करने से स्वर्ग प्राप्त होता है ओर मोक्ष मिलती है. स्कन्द पुराण के अनुसार कुंभ में संपूर्ण श्रद्धा के साथ स्नान करने से मनुष्य की हर मनोकामना की पूर्ति होती है. अग्निपुराण में भी कहा गया है कि इस पर्व पर त्रिवेणी में स्नान करने से करोड़ों गायों का दान करने समान पुण्य प्राप्त होता है. ब्रम्ह पुराण में भी उल्लेखित है कि कुंभ स्नान से अश्वमेध यज्ञ जैसा फल मिलता है और मनुष्य जीवन-मृत्यु की माया से मुक्त हो जाता है.