जिस तरह पृथ्वी पर आतंक का पर्याय बने अत्याचारी राक्षसों के संहार हेतु भगवान विष्णु ने नौ बार पृथ्वी पर अवतार लिया, उसी तरह धर्म के नाम समाज में विघटन करने वाले तत्वों एवं समाज में व्याप्त कुप्रथाओं को खत्म करने के लिए संत कबीरदास भी ने अवतार लिया था. कबीर पंथी आज भी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं. यद्यपि कबीरदास जी के जन्म स्थल एवं जन्म-तिथि को लेकर प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. लेकिन प्राप्त साहित्यों के अनुसार संवत 1455 को ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन उनका जन्म हुआ था. इसी दिन इनकी जयंती मनाई जाती है. इस बार यह तिथि 5 जून को है. कबीरदास जी जन्म के संदर्भ में प्रचलित कथा के अनुसार एक कुंआरी ब्राह्मणी ने लोक-लाज के भय से अपने नवजात शिशु को लहरतारा तालाब काशी (आज के वाराणसी) के समक्ष छोड़कर चली गयी थी, जिसे निसंतान नीरू और नीमा नामक निसंतान जुलाहा दंपति ने परवरिश की.
क्यों प्रासंगिक हैं आज भी कबीर:
कबीर निर्गुणोपासक थे. उनके निर्गुणोपासक में न तो मुसलमानों के एकेश्वरवाद को स्थान प्राप्त था और न ही हिन्दुओं की सगुणोपासना को. वे जाति–पाति पर भी विश्वास नहीं करते थे. उनके कालखंड में समाज में सर्वत्र धर्म और कुल के नाम पर पाखंड छाया हुआ था. उन्होंने सदा से इंसानियत को सर्वोपरि रखा. पाखंड, कुरीतियों और सामाजिक विभेदों पर वे खूब बरसें, बिना किसी भय के उन्होंने सभी के धर्म एवं पाखंडों पर कटाक्ष किया. समयकाल ने कबीर को तो हमसे छीन लिया मगर धर्म और पाखंड का व्यापार आज भी खूब फल-फूल रहा है. यही वजह है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखा कबीरदास जी का साहित्य आज भी प्रासंगिक लगता है.
देश के पहले रहस्यवादी कवि और संत:
कबीरदास जी हिंदी साहित्य के 15वीं सदी के इकलौते रहस्यवादी कवि और संत थे, जिनकी पहचान भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी – निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक के रूप में हुई. इन्होनें अपनी दोहों और कविताओं से सम्पूर्ण भारतीय जनमानस पर अपना प्रभाव छोड़ा. यह सच है कि कबीरदास जी ने स्वयं किसी ग्रंथ की रचना नहीं की. कहा जाता है कि उनके शिष्यों ने कबीरदास जी द्वारा गाये पदों को एकत्र कर उसे तीन पुस्तकों साखी, सबद और रमैनी का रूप दिया. कबीरदास जी की वाणी आदिग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब के रूप में संकलित हुई थी. कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे इसीलिए इनकी भाषा साधुक्कड़ी या खिचड़ी है. लेकिन अपनी भाषा पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी.
देह त्यागते हुए भी दे गये संदेश:
हिंदुओं में यह कथन प्रचलित है कि काशी में देह त्यागने वाले को सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है. शायद इसी धारणा को गलत साबित करने के लिए कबीरदास जी को जब जीवन के अंत का अहसास हुआ तो काशी में रहते हुए वे काशी छोड़ बस्ती के करीब मगहर जैसे छोटे ग्राम की ओर प्रयाण कर गये. उनके जीवन का अंत भी बहुत नाटकीय बताया जाता है. कहते हैं कि उनके निधन के पश्चात जब उनके देह को जलाने अथवा दफनाने के लिए हिंदू और मुसलमानों में विवाद हुआ तो, आपसी सहमति से उनके मृत देह से चादर हटाया गया तो वहां कुछ पुष्प ही नजर आये. कहा जाता है कि उन पुष्पों को हिंदू और मुसलमानों में आपस में बांट लिया और अपने धर्मों के अनुरूप दोनों ही समुदाय ने उनका अंतिम संस्कार किया.