छठ महापर्व 2025: सूर्य पूजा और लोक आस्था का चार दिवसीय व्रत आज से शुरू, जानें रामायण और महाभारत से कैसे जुड़ी है यह परंपरा
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Chhath Mahaparv 2025: यह सिर्फ सूर्य पूजा नहीं, यह माता सीता की तपस्या, द्रौपदी के संकल्प और हज़ारों साल से चली आ रही एक लोक-आस्था की कहानी है. आज से प्रकृति की पूजा और आस्था के सबसे बड़े लोकपर्व, छठ महापर्व की शुरुआत हो रही है. यह सिर्फ़ एक व्रत नहीं है; यह एक उत्सव है, जो चार दिनों तक चलता है. यह उन कुछ गिने-चुने पर्वों में से है, जिसका मूल आधार ही प्रकृति है. छठ का पर्व प्रकृति को 'दैवीय सम्मान' देने, अपने आसपास के परिवेश की स्वच्छता, और नदियों या तालाबों जैसे जल स्रोतों के महत्व को समझने का पर्व है.

यह पर्व उस समय आता है जब ऋतु परिवर्तन हो रहा होता है. यह हमें मौसम के बदलाव के लिए शरीर को तैयार करने की भी प्रेरणा देता है. जो लोग यह व्रत रखते हैं, वे कठोर नियमों का पालन करते हैं—नदियों में स्नान करना, घाटों की सफ़ाई करना, और सूर्य को अर्घ्य देना.

लेकिन यह व्रत इतना कठोर, इतना शुद्ध और इतना प्रकृति-केंद्रित क्यों है? यह आज का नहीं है. इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे हमें वेदों, पुराणों और यहाँ तक कि रामायण-महाभारत के पन्नों तक ले जाती हैं. इस व्रत की कहानी समझने के लिए, हमें हज़ारों साल पीछे चलना होगा.

 

छठ का 'दोहरा रहस्य': कौन हैं छठी मैया और क्यों पूजते हैं सूर्य को?

 

जब हम यह सवाल पूछते हैं कि छठ पूजा कब से शुरू हुई, तो इसका कोई एक, सीधा जवाब देना मुश्किल है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इस पर्व में दो धाराएँ एक साथ आकर मिलती हैं.

आमतौर पर इसे 'छठ पूजा' कहते हैं, जो एक देवी से जुड़ी है, लेकिन असल में यह पूजा पूरी तरह 'सूर्य' की होती है. यह एक पहेली की तरह लगता है, लेकिन यही इसकी खूबसूरती है.

 

लोक देवी 'छठी मैया'

 

पहली धारा 'लोक' की है, यानी आम जनमानस की. 'छठी मैया' एक लोक देवी हैं. वेदों या बड़े पौराणिक ग्रंथों में उनका सीधा ज़िक्र नहीं मिलता. उनका संबंध भारत की उस गहरी परंपरा से है, जो बच्चों के जन्म से जुड़ी है. आज भी जब किसी घर में बच्चे का जन्म होता है, तो पाँचवें या छठे दिन 'छठी' पूजने का रिवाज़ है.

लोक मान्यता है कि छठी मैया वही देवी हैं, जो नवजात बच्चों की सुरक्षा करती हैं और उन्हें आशीर्वाद देती हैं. वह परिवार के वंश को आगे बढ़ाने वाली देवी हैं.

लेकिन फिर एक लोक देवी, सूर्य पूजा के इतने बड़े वैदिक पर्व का हिस्सा कैसे बनीं? इसका जवाब एक पौराणिक कथा में मिलता है.

कहा जाता है कि बहुत पहले, स्वयंभुव मनु के पुत्र, राजा प्रियव्रत थे, जो संतान न होने के कारण बहुत दुखी रहते थे. उन्होंने महर्षि कश्यप के कहने पर यज्ञ किया, जिससे उनकी पत्नी मालिनी को पुत्र हुआ, लेकिन वह शिशु मृत पैदा हुआ. राजा और उनका परिवार शोक में डूब गया.

तभी, आकाश में एक दिव्य देवी प्रकट हुईं. उन्होंने राजा से कहा: "मैं षष्ठी देवी हूँ, जो प्रकृति का छठा रूप है. मैं दुनिया के सभी बच्चों की रक्षा करती हूँ और सभी संतानहीन माता-पिता को संतान का आशीर्वाद देती हूँ."

इसके बाद, उस देवी ने अपने हाथों से उस निर्जीव शिशु को छुआ और उसे आशीर्वाद दिया, जिससे वह जीवित हो गया. राजा प्रियव्रत देवी की इस कृपा से अभिभूत हो गए और उन्होंने राज्य में देवी षष्ठी की पूजा का चलन शुरू किया. माना जाता है कि इसी घटना के बाद यह पूजा एक विश्वव्यापी उत्सव बन गई.

 

वैदिक देवता 'सूर्य'

 

दूसरी धारा 'वेद' की है. छठी मैया के विपरीत, सूर्य पूजा का ज़िक्र वेदों से लेकर पुराणों तक में विस्तार से मिलता है. भारत के दोनों महान महाकाव्यों, रामायण और महाभारत, में सूर्य पूजा का स्पष्ट वर्णन है.

ब्रह्म वैवर्त पुराण में भी यह उल्लेख है कि छठ त्योहार के दौरान छठी मैया की पूजा की जाती है.

तो, छठ पूजा क्या है? यह कोई विरोधाभास नहीं, बल्कि एक 'महा-संगम' है. यह पर्व दो सबसे बुनियादी मानवीय इच्छाओं को एक साथ लाता है. पहली, 'वंश की वृद्धि' और 'संतान की सुरक्षा', जिसकी देवी 'छठी मैया' हैं. और दूसरी, 'जीवन, ऊर्जा और आरोग्य (स्वास्थ्य)', जिसके देवता 'सूर्य' हैं. छठ में, हम एक ही साथ अपने परिवार और इस ब्रह्मांड, दोनों की पूजा करते हैं.

 

जब रामायण में गूंजी सूर्य पूजा: माता सीता का 'छठ व्रत'

 

इस सूर्य पूजा के निशान हमें सीधे रामायण काल में ले जाते हैं. हालाँकि तब इसका स्वरूप आज जैसा नहीं था, लेकिन भावना वही थी.

रामायण में ज़िक्र मिलता है कि जब भगवान राम और माता सीता 14 वर्ष के वनवास के लिए अयोध्या से निकले, तब देवी सीता ने गंगा के जल में खड़े होकर सूर्य देव की उपासना की थी. उन्होंने अयोध्या की सुरक्षा और अपने सफल वनवास के लिए यह कामना की थी.

इसके 14 साल बाद, जब वे वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे, तब भी उन्होंने सबसे पहले अपने उस व्रत को पूरा किया. अयोध्या में प्रवेश करने से पहले, माता सीता ने गंगा में जाकर अपने 14 वर्ष पहले शुरू किए गए सूर्य व्रत का 'पारायण' (समापन) किया.

यह भी कहा जाता है कि दीपावली के मौके पर अयोध्या वापसी के ठीक छह दिन बाद 'रामराज' की स्थापना हुई थी. उस दिन भी श्रीराम ने अपने कुल के ईष्ट देव सूर्यदेव का व्रत रखा था, और माता सीता ने 'सूर्य षष्ठी' की पूजा की थी. यह एक वैदिक अनुष्ठान था, और माना जाता है कि इसी अनुष्ठान के आशीर्वाद से उन्हें बाद में लव और कुश के रूप में दो पुत्रों का आशीर्वाद मिला.

इस व्रत की जड़ें सिर्फ़ अयोध्या तक सीमित नहीं हैं. बिहार के चंपारण और नेपाल के मधेश प्रांत में यह गहरी मान्यता है कि जब माता सीता को अयोध्या छोड़ना पड़ा, तब उन्होंने भारत-नेपाल सीमा पर स्थित वाल्मीकि आश्रम में निवास किया था. यह आश्रम चितवन जिले में नारायणी (गंडकी) नदी के किनारे था. उस समय, उन्होंने नेपाल में रहते हुए सूर्य पूजा का यह अनुष्ठान जारी रखा था. यही कारण है कि छठ की मान्यता आज भी नेपाल में उतनी ही गहरी है, जितनी भारत में.

बिहार के मुंगेर क्षेत्र में भी इस पर्व का जुड़ाव सीधे सीता से है. वहाँ गंगा नदी के बीच एक पत्थर पर 'सीताचरण मंदिर' (माता सीता के पदचिन्ह) है. यह माना जाता है कि देवी सीता ने मुंगेर में भी सूर्य षष्ठी व्रत किया था. आज भी यह स्थान छठ के दौरान जन विश्वास का मुख्य केंद्र है.

यह कथाएँ बताती हैं कि छठ सिर्फ़ एक अनुष्ठान नहीं है, यह 'माता सीता की कहानी' है. यह व्रत एक स्त्री के धैर्य, संकल्प और हर परिस्थिति में अपनी आस्था बनाए रखने का प्रतीक है.

 

महाभारत में सूर्य साधना: कुंती और द्रौपदी का संकटमोचक व्रत

 

अगर रामायण में यह व्रत धैर्य और संतान प्राप्ति के लिए है, तो महाभारत में यह व्रत 'संकट' से उबरने और 'अस्तित्व' की रक्षा के लिए किया गया है.

 

माता कुंती की सूर्य साधना

 

महाभारत में पांडवों की माता कुंती द्वारा भी सूर्य पूजा का स्पष्ट वर्णन मिलता है. कुंती का सूर्यदेव से संबंध तो उनके विवाह से पहले का था, जब उन्होंने ऋषि दुर्वासा के मंत्र से सूर्यदेव का आह्वान किया था और कर्ण को पुत्र रूप में पाया था.

लेकिन एक मां के तौर पर, उन्होंने यह पूजा तब की जब उनके पुत्रों पर सबसे बड़ा प्राणघातक संकट आया. जब पांडव लाक्षागृह की आग से बचकर निकले और भटकते हुए वारणावत गाँव की सीमा पर एक नदी तट पर पहुँचे, तब कुंती ने कमर तक जल में खड़े होकर सूर्यदेव की पूजा की.

उस पूजा में उन्होंने सूर्यदेव से कहा था: "जिस तरह चंद्र (चंद्रमा) आपके मित्र हैं और आकाश में आपके ही प्रकाश से प्रकाशित होते हैं, उसी तरह चंद्रवंश के इन पाँच चंद्रमाओं (पांडवों) को भी मैं आपके संरक्षण में रखती हूँ." यह एक माँ की अपने बच्चों के प्राणों की रक्षा के लिए की गई पुकार थी.

 

द्रौपदी का अक्षयपात्र

 

सूर्य पूजा का ज़िक्र द्रौपदी द्वारा भी मिलता है. वनवास के दौरान, जब पांडवों के पास रहने-खाने का कोई ठिकाना नहीं था, तब द्रौपदी ने सूर्य की उपासना की थी.

द्रौपदी की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्यदेव ने उन्हें 'अक्षयपात्र' का वरदान दिया. यह एक ऐसा बर्तन था जिसमें कभी अन्न समाप्त नहीं होता था. पांडवों के उस लंबे वनवास के दौरान यह अक्षय पात्र उनके जीवन का आधार बना. द्रौपदी हर रोज़ उससे अपनी ज़रूरत का अन्न निकाल सकती थीं, और जब तक वह खुद भोजन करके उस पात्र को धोकर नहीं रख देतीं, तब तक उसमें से अन्न निकलता रहता था.

इतना ही नहीं, द्रौपदी ने कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने के लिए भी 'सूर्यषष्ठी' की पूजा की थी.

इस कथा का भी एक जीवित प्रमाण है. माना जाता है कि द्रौपदी ने यह पूजा रांची के पास नागड़ी गांव में एक झरने के पास की थी. आज भी उस गांव में यह त्योहार किसी नदी या तालाब के बजाय, उसी झरने के पास मनाया जाता है.

महाभारत की ये कथाएँ छठ को 'संघर्ष' और 'जीवन' का व्रत बनाती हैं. यह सिखाती हैं कि जब सारे रास्ते बंद हो जाएँ, तब भी प्रकृति (सूर्य) की ऊर्जा आपको जीवन दे सकती है.

 

वेदों से भी पुरानी जड़ें: जब मनु ने पहली बार सूर्य को अर्घ्य दिया

 

छठ पूजा में एक चीज़ बहुत ख़ास है—पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना. यह सिर्फ़ एक रिवाज़ नहीं है, यह एक ऐतिहासिक निरंतरता है, जो शायद महाकाव्यों से भी पुरानी है.

वैदिक काल में ऋषिगण स्नान के बाद ठीक इसी तरह 'कमर तक जल में खड़े रहकर' सूर्य की उपासना करते थे.

यह परंपरा कितनी पुरानी है, इसका अंदाज़ा जल प्रलय की कथा से लगता है. पुराणों में वर्णित जल प्रलय की जो पहली कथा है, उसकी शुरुआत ही सूर्य पूजा से होती है. जब महाराज मनु ने स्नान करने के बाद 'कमर तक जल में रहकर' सूर्यदेव को अर्घ्य दिया, ठीक उसी समय उनकी हथेली के जल में एक छोटी-सी मछली आ गई. वही मछली भगवान विष्णु का 'मत्स्य अवतार' थी, जिसने मनु को आने वाली जल प्रलय से आगाह किया और सृष्टि को बचाने में मदद की.

भारत में सूर्य की उपासना ऋग्वैदिक काल से ही होती आ रही है. एक देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में ही मिलता है.

इसका अर्थ यह है कि 2025 में जब कोई व्रती छठ के दिन कमर तक पानी में खड़ा होकर सूर्य को अर्घ्य देता है, तो वह अनजाने में ही उसी प्राचीन मुद्रा को दोहरा रहा होता है, जिसे महाराज मनु ने सृष्टि के आरंभ में, वैदिक ऋषियों ने, माता सीता ने और रानी कुंती ने अपनाया था. यह छठ को 'जीवित इतिहास' बनाता है.

 

क्यों पूजते हैं डूबते और उगते सूर्य को? छठ का विज्ञान और दर्शन

 

छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का ही पर्व है. हिन्दू धर्म में सूर्य ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें हम 'मूर्त रूप' में, यानी अपनी आँखों से साक्षात देख सकते हैं.

लेकिन छठ की पूजा किसी भी अन्य सूर्य पूजा से अलग है. ज़्यादातर संस्कृतियाँ सिर्फ़ उगते सूरज (शक्ति) की पूजा करती हैं. लेकिन छठ एकमात्र ऐसा पर्व है, जहाँ 'डूबते सूर्य' को भी उतनी ही श्रद्धा से पूजा जाता है, जितना 'उगते सूर्य' को.

इसका एक गहरा दर्शन है. माना जाता है कि सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी दो पत्नियाँ, ऊषा और प्रत्यूषा हैं. छठ में हम सूर्य के साथ-साथ इन दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना करते हैं:

  1. सायंकाल अर्घ्य (शाम): यह सूर्य की अंतिम किरण, यानी 'प्रत्यूषा' को अर्घ्य देना है. यह बीते हुए दिन के लिए, जो कुछ भी हमें मिला, उसके लिए धन्यवाद और आभार प्रकट करना है.
  2. प्रातःकाल अर्घ्य (सुबह): यह सूर्य की पहली किरण, यानी 'ऊषा' को अर्घ्य देना है. यह आने वाले कल के लिए, नई आशा और नई ऊर्जा का स्वागत करना है.

यह जीवन के पूरे चक्र को सम्मान देना है—सिर्फ़ शुरुआत (जन्म) को नहीं, बल्कि अंत (मृत्यु) को भी.

इस दर्शन का एक वैज्ञानिक आधार भी है. पौराणिक काल में सूर्य को 'आरोग्य देवता' (स्वास्थ्य का देवता) भी माना जाने लगा था. तब ऋषि-मुनियों ने यह पाया कि सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता होती है. आज विज्ञान भी मानता है कि सुबह और शाम की किरणें (जब सूरज लाल होता है) शरीर के लिए सबसे ज़्यादा फ़ायदेमंद होती हैं, वे विटामिन-डी का सबसे अच्छा स्रोत हैं और कई चर्म रोगों को ख़त्म करती हैं.

हमारे पूर्वजों ने सूर्य के इसी 'आरोग्य' रूप को और उसकी 'ऊषा' और 'प्रत्यूषा' किरणों को एक पर्व का रूप दे दिया.

 

कैसे एक आंगन की पूजा बन गई दुनिया का 'महापर्व'?

 

आज हम जिस छठ को देख रहे हैं, वह किसी एक दिन में या किसी एक कथा से नहीं बना है. इसका विकास पौराणिकता और आम लोगों के विश्वास से मिलकर 'कई परतों' में हुआ है.

इसकी जड़ें अलग-अलग जगहों पर दिखती हैं:

  • बक्सर (बिहार): माना जाता है कि बिहार के बक्सर क्षेत्र में ही प्राचीन काल में ऋषि कश्यप और माता अदिति का आश्रम था. यहीं पर माता अदिति ने कार्तिक मास के छठे दिन सूर्य को पुत्र के रूप में जन्म दिया था. अदिति का पुत्र होने के कारण ही सूर्य का एक नाम 'आदित्य' है. इस नाते, छठ एक तरह से 'सूर्य का जन्मदिन' भी है.
  • वाराणसी (काशी): काशी खंड और ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, छठ पूजा की शुरुआत पवित्र शहर वाराणसी में गाहड़वाल वंश द्वारा की गई थी, और माना जाता है कि काशी से ही यह चलन देश के अन्य हिस्सों में फैला.

पहले यह पर्व सिर्फ बिहार, बंगाल, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित था, और इसका कोई खास प्रचार नहीं था.

लेकिन बीते 20 सालों में यह एक 'लोकआस्था के महापर्व' के रूप में विकसित हुआ है. सवाल उठता है, कैसे?

इसका सबसे बड़ा कारण है 'प्रवासन' (Migration). जब बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग काम के लिए अपने गाँव, अपनी मिट्टी छोड़कर दिल्ली, मुंबई, गुजरात या सात समंदर पार अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप गए, तो वे अपने साथ अपनी संस्कृति और अपनी इस गहरी आस्था को भी ले गए.

नई जगह पर, अपनी जड़ों से दूर, यह पर्व उनके लिए सिर्फ़ एक पूजा नहीं रहा, बल्कि उनकी 'पहचान' का प्रतीक बन गया. यह अपने घर को, अपनी मिट्टी को याद करने का एक ज़रिया बन गया. इसी शक्ति ने एक क्षेत्रीय लोक पर्व को आज एक 'वैश्विक महापर्व' बना दिया है, जो आज भी विकसित हो रहा है.

 

छठ की शक्ति: वे कथाएं जो इस व्रत को महान बनाती हैं

 

छठ की यात्रा को हम इन मुख्य कथाओं के ज़रिए संक्षेप में समझ सकते हैं:

व्यक्तित्व संदर्भ (कब) पूजा का कारण स्रोत
महाराज मनु जल प्रलय (सृष्टि की शुरुआत) सूर्य को अर्घ्य (जिससे मत्स्य अवतार प्रकट हुए) ,
राजा प्रियव्रत मृत पुत्र का जन्म (पौराणिक काल) संतान की रक्षा और जीवन के लिए (माता षष्ठी की पूजा) ,,
माता सीता रामायण (वनवास, रामराज) सफल वनवास, अयोध्या की सुरक्षा और संतान प्राप्ति (लव-कुश) ,,
माता कुंती महाभारत (लाक्षागृह के बाद) पांडवों के प्राणों की रक्षा और संरक्षण के लिए ,
महारानी द्रौपदी महाभारत (वनवास, युद्ध) भोजन के लिए (अक्षयपात्र) और युद्ध में विजय के लिए ,,
माता अदिति बक्सर (पौराणिक कथा) सूर्य को पुत्र रूप में पाने के लिए (सूर्य का जन्मदिन)

 

आस्था जो प्रकृति को प्रणाम करती है

 

छठ महापर्व 2025 सिर्फ़ एक तारीख नहीं है. यह हज़ारों साल पुरानी एक विरासत की याद दिलाता है.

इसकी यात्रा एक लोक देवी 'षष्ठी' की पूजा से शुरू हुई, जिसे संतान की रक्षा के लिए पूजा गया. इसमें वेदों की 'सूर्य' शक्ति आकर जुड़ी. यह माता सीता की तपस्या और द्रौपदी के संकल्प से मज़बूत हुई. और आज, यह दुनिया भर में फैले अपने भक्तों की 'आस्था' और 'पहचान' के साथ खड़ी है.

यह दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा पर्व है, जहाँ किसी पुजारी या बिचौलिए की ज़रूरत नहीं होती. व्रती (व्रत करने वाला) और ईश्वर (प्रकृति) के बीच यह एक सीधा संवाद है. यह हमें सिखाता है कि जीवन 'प्रकृति' से ही शुरू होता है और उसी को धन्यवाद देकर पूरा होता है—डूबते सूर्य (बीते कल के लिए आभार) और उगते सूर्य (आने वाले कल के लिए आशा) को प्रणाम करके.