लोकसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन के लिए राकांपा से गठबंधन जिम्मेदार: साप्ताहिक
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मुंबई, 17 जुलाई : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े एक साप्ताहिक अखबार ने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खराब प्रदर्शन के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) से गठबंधन के उसके फैसले को कसूरवार ठहराया है. अखबार में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि भाजपा के अजित पवार के नेतृत्व वाले राकांपा गुट से हाथ मिलाने के बाद जनभावनाएं पूरी तरह से पार्टी के खिलाफ हो गईं. लेख के मुताबिक, उसने भाजपा के कुछ कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों से बात की और इन सभी ने कहा कि वे राकांपा से हाथ मिलाने के पार्टी के फैसले से सहमत नहीं थे. अखबार ने कहा कि पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच व्याप्त असंतोष को “कम करके आंका गया.” उसने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश में बेहतर समन्वय और शासन एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में कार्यकर्ताओं को दिए गए महत्व ने राज्य की लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज करने में भाजपा की मदद की. वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा की सीटों की संख्या पिछले चुनाव में 23 के मुकाबले घटकर नौ हो गई. वहीं, महायुति के उसके गठबंधन सहयोगियों-एकनाथ शिंदे नीत शिवसेना को सात, जबकि अजित पवार नीत राकांपा को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा.

दूसरी ओर, विपक्षी गठबंधन महा विकास आघाडी (एमवीए) ने अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से 30 पर कब्जा जमाया. एमवीए में शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे), राकांपा (शरद चंद्र पवार) और कांग्रेस शामिल हैं. आरएसएस से जुड़े साप्ताहिक अखबार ‘विवेक’ ने मुंबई, कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र क्षेत्र में 200 से अधिक लोगों पर की गई अनौपचारिक रायशुमारी के आधार पर यह लेख प्रकाशित किया.

लेख में कहा गया है, “भाजपा या संगठन (संघ परिवार) से जुड़े लगभग हर व्यक्ति ने कहा कि वह राकांपा (अजित पवार के नेतृत्व वाले) के साथ गठबंधन करने के भाजपा के फैसले से सहमत नहीं है. हमने 200 से अधिक उद्योगपतियों, व्यापारियों, चिकित्सकों, प्रोफेसर और शिक्षकों की राय जानी. इन सभी ने माना कि भाजपा-राकांपा गठबंधन को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं में व्याप्त असंतोष को कम करके आंका गया.” लेख के अनुसार, एक-दूसरे से छोटी-मोटी शिकायतों के बावजूद हिंदुत्व के साझा सूत्र के चलते शिवसेना के साथ भाजपा के गठबंधन को हमेशा स्वाभाविक माना जाता है. यह भी पढ़ें : नवी मुंबई में आरपीएफ अधिकारी 70 हजार रुपये की रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार

लेख में कहा गया है कि लोगों ने पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ एमवीए के तत्कालीन मंत्री एकनाथ शिंदे की बगावत स्वीकार कर ली थी. यह बगावत उद्धव सरकार के गिरने का कारण बनी थी. इसमें कहा गया है कि भाजपा ने बाद में शिंदे के समर्थन की घोषणा की और वह सरकार बनाने में सफल रहे. लगभग एक साल बाद, तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अजित पवार पार्टी के कई विधायकों के साथ शिंदे सरकार में बतौर उपमुख्यमंत्री शामिल हो गए. लेख में कहा गया है, “हालांकि, राकांपा से हाथ मिलाने के बाद जनभावनाएं पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ हो गईं. राकांपा की वजह से गणित गड़बड़ाने के बाद पार्टी की भावी रणनीति को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं.” लख के मुताबिक, भाजपा की एक ऐसे दल के रूप में छवि बन गई, जो नेताओं को मांझने की पुरानी संगठनात्मक प्रक्रिया को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए दूसरी पार्टी के नेताओं को खुद में शामिल करती है.

लेख में कहा गया है कि इस प्रक्रिया से पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर अटल बिहारी वाजपेयी और राज्य स्तर पर गोपीनाथ मुंडे, प्रमोद महाजन, नितिन गडकरी और देवेंद्र फडणवीस जैसे दिग्गज नेता मिले. इसमें कहा गया है कि ये सभी नेता विनम्र पार्टी कार्यकर्ता थे, जो आगे चलकर बड़े नेता बने और वे इस बात को हमेशा से जानते थे. लेख में अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से हिंदुत्व का प्रचार करने वाले यूट्यूबर भाऊ तोरसेकर को भाजपा की राज्य पदाधिकारी श्वेता शालिनी की ओर से भेजे गए कानूनी नोटिस का अप्रत्यक्ष रूप से जिक्र किया गया. तोरसेकर ने अपने एक हालिया पोस्ट में शालिनी के खिलाफ आलोचनात्मक टिप्पणी की थी, जिसके बाद शालिनी ने उन्हें कानूनी नोटिस भेजा था. हालांकि, बाद में उन्होंने इसे वापस ले लिया.

लेख में कहा गया है, “विपक्ष ने यह धारणा कायम करने में सफलता पाई कि पार्टी के मूल कार्यकर्ता हमेशा निचले पायदान पर रहेंगे, जबकि दलबदलुओं को बड़े पद मिलेंगे. सोशल मीडिया पर हिंदुत्व का प्रचार करने वालों के खिलाफ कुछ लोगों की कार्रवाई ने भी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच असंतोष बढ़ा दिया. कार्यकर्ता यह भी सोचने लगे कि पार्टी में उनकी राय की कोई कीमत है या नहीं.” अखबार ने राम मंदिर की सीमित स्वीकार्यता और आपातकाल के दौरान आरएसएस और भाजपा कार्यकर्ताओं के बलिदान को भी रेखांकित किया. उसने कहा, “आपातकाल के दौरान और राम मंदिर आंदोलन के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं के बलिदान के बारे में कोई संदेह नहीं है. पर जब मतदान की बात आती है, तो 45 वर्ष से कम उम्र के शिक्षित लोगों पर इसका कितना प्रभाव पड़ता है? भले ही वह व्यक्ति हिंदुत्व समर्थक हो, उसे तीन-चार दशक पहले हुई घटनाओं से कोई जुड़ाव महसूस नहीं होगा.”