वैशाख मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को हिंदू धर्म के प्रणेता आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) की जयंती मनायी जाती है. शास्त्रों के अनुसार इनका जन्म केरल के कालड़ी गांव में एक ब्राह्मण (Brahmin) दंपति शिवगुरु नामपुद्र और विशिष्ठा देवी के घर भगवान शिव (Lord Shiva) जी के आशीर्वाद से हुआ था. ऐसी भी बातें प्रचलित हैं कि आदि शंकराचार्य के रूप में स्वयं भगवान शिव ने अवतार लिया था. मात्र दो वर्ष की आयु में सभी वेद एवं उपनिषद का ज्ञान हासिल करने वाले आदि शंकराचार्य के महज 32 साल के जीवन में कई प्रेरक एवं दिव्य प्रसंग जुड़े हैं, जो आम मानव के वश की बात नहीं. आज 17 मई को जब देश आदि शंकराचार्य की जयंती के अवसर पर इन्हीं प्रसंगों पर बात करते हैं. Adi Shankaracharya Jayanti 2020: आदि शंकराचार्य ने दी हिंदू धर्म को खास पहचान, जानें क्यों कहते हैं उन्हें शिव-अवतार!
भगवान शिव के अवतार थे आदि शंकराचार्य?
आचार्य पिता शिवगुरु ने पुत्र की प्राप्ति के लिए पत्नी विशिष्ठा के साथ भगवान शिव की पूजा-अर्चना की. तब भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए. उन्होंने कहा कि आप दोनों माता-पिता अवश्य बनेंगे. आपका पुत्र सर्वज्ञानी होगा, लेकिन वह अल्पायु में मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा, लेकिन आप दीर्घायु जीवन वाला पुत्र चाहते हैं तो वह सर्वज्ञानी नहीं होगा. माता-पिता ने सर्वज्ञानी पुत्र की कामना प्रकट की. कहते हैं कि उनकी मनोकामना पूरी करते हुए शिवजी ने कहा कि मैं स्वयं तुम्हारी संतान के रूप में जन्म लूंगा. अंततः साल 788 में वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. चूंकि बालक भगवान शिव के आशीर्वाद से पैदा हुआ था, इसलिए उसका नाम शंकर रखा गया.
माँ विशिष्ठा की कोशिशों से शंकर बने ‘आदि शंकराचार्य’
बालक शंकर के जन्म लेने के दो साल के भीतर ही पिता शिवगुरु का निधन हो गया. शंकर ने मात्र दो साल की उम्र में सभी वेदों और उपनिषदों का ज्ञान हासिल कर लिया था. माँ विशिष्ठा शंकर के दिव्य ज्ञान के रहस्य से बखूबी परिचित थीं. पति की मृत्यु से विचलित हुए बिना उन्होंने शंकर को शिक्षा अर्जित करवाने के सारे मार्ग खोल दिये. वह जानती थीं कि शंकर के पास ज्यादा वक्त नहीं है. उन्होंने शंकर को सर्वज्ञानी बनाने के लिए अपने ममत्व का त्याग करते हुए महज सात साल की उम्र में संन्यास लेने की स्वीकृति दे दी.
मातृ एवं पुत्र का अलौकिक प्रेम!
आचार्य शंकर जी अपनी मां विशिष्ठा देवी की बहुत सेवा एवं सम्मान करते थे. एक प्रचलित कथा के अनुसार शंकराचार्य जी की मां विशिष्ठा देवी को पूर्णा नदी में स्नान करने के लिए काफी दूर तक पैदल चलकर जाना पड़ता था. क्योंकि पूर्णा नदी उनके गांव से कई मील दूर पर बहती थीं. आचार्य शंकर को माँ का इतना चलना अच्छा नहीं लगता था, माँ जब स्नानकरर थककर चूर घर आती तो वे मां का पावं दबाकर उनकी थकान उतारने की कोशिश करते थे. कहते हैं कि शंकर के मातृ-प्रेम पूर्णा नदी भाव विभोर हो गईं और उन्होंने अपनी दिशा बदलते हुए आचार्य शंकर के गांव कालड़ी से होकर बहने लगीं.
चांडाल से प्राप्त किया ज्ञान
एक बार शंकराचार्य बनारस में काशी विश्वनाथजी का दर्शन करने जा रहे थे, तभी उनके सामने एक चांडाल आ गया. शंकराचार्य ने क्रोधित होकर कहा- ऐ चांडाल सामने से हट. इस पर चांडाल ने कहा ‘हे मुनिवर! आप शरीर में रहनेवाले परमात्मा की अवहेलना कर रहे हैं, आप ब्राह्मण नहीं हैं. इसलिए मेरे रास्ते से आपको हटना होगा. चांडाल की बात सुनकर आचार्य शंकर उससे प्रभावित होकर बोले आपने मुझे ज्ञान दिया है, इसलिए आज से आप मेरे गुरु हुए. उन्होंने चांडाल को रास्ता दिया और उन्हें प्रणाम करते हुए प्रस्थान कर गये.
इकलौते बेटे को माँ ने क्यों दिया संन्यासी बनने की स्वीकृति
कोई भी माँ अपने इकलौते पुत्र को संन्यासी बनने की स्वीकृति कभी नहीं दे सकती, खासकर तब जब उसे पता है कि उसके पुत्र की आयु ज्यादा नहीं है. वे ममत्व के आवेश में पुत्र को दूर नहीं करना चाहती थीं. एक दिन नदी में स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया, शंकराचार्यजी ने माँ से कहा, मुझे माँ मुझे संन्यास की आज्ञा दो नहीं तो मगरमच्छ मुझे खा जायेगा. भयभीत हो मां ने तुरंत उन्हें संन्यास धर्म अपनाने की स्वीकृति दे दी. माँ की स्वीकृति मिलते ही मगरमच्छ शंकराचार्य का पैर छोड़कर नदी में चला गया. इसके बाद उन्होंने गुरु गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया.
चार मठों की स्थापना
आदि शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में अद्वैत वेदांत मत का प्रचार करने के साथ-साथ पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इन दिशाओं में चार मठों की स्थापना की. पहला मठ दक्षिण भारत में वेदांत मठ की स्थापना श्रंगेरी (रामेश्वरम) में की. जिसे प्रथम मठ यानी ज्ञान मठ का नाम दिया. इसके बाद पूर्व भारत यानी जगन्नाथ पुरी में दूसरे मठ गोवर्धन मठ की स्थापना की. इसके बाद पश्चिम भारत द्वारिकापुरी में तीसरे मठ यानी शारदा मठ की स्थापना की, यह मठ कलिका मठ के नाम से भी जाना जाता है. चौथे एवं अंतिम मठ के लिए उन्होंने उत्तर भारत के बद्रिका आश्रम को चुना. इन चारों मठ की स्थापना करने के उपरांत देश के कोने-कोने में घूम-घूम कर हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया. 32 वर्ष की अल्पायु में सम्वत 820 में केदारनाथ के समीप आदि शंकराचार्य ने देह त्याग कर गोलोकवास हो गये.