Khan Abdul Gaffar Khan Death Anniversary: ऐसे ही नहीं पुकारते हैं उन्हें “बादशाह खान”
खान अब्‍दुल गफ्फार खान (Wikimedia Commons)

खान अब्दुल गफ्फार खान : देश की आजादी के लिए कई मतवालों ने आहुतियां दीं. एक ऐसे ही महान राजनेता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले शख्स थे खान अब्‍दुल गफ्फार खान (Khan Abdul Gaffar Khan). इतिहास के पन्‍नों पर उनका एक नहीं बल्क‍ि अनेक नाम हैं- सरहदी गांधी (सीमान्त गांधी), बाचा खान, बादशाह खान, फ्रंटियर गांधी, आदि. 20 जनवरी को उनकी पुण्यतिथि पर उनका जिक्र तो बनता है. उनके कई नामों की बात करें तो बचपन से ही अब्दुल गफ्फार खान अत्यधिक दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति रहे, इसलिये अफगानों ने उन्हें 'बाचा खान' नाम दिया. सीमा प्रांत के कबीलों पर उनका अत्यधिक प्रभाव था. गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी. विनम्र गफ्फार ने सदैव स्वयं को एक 'स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक' मात्र कहा, परन्तु उनके प्रशंसकों ने उन्हें 'बादशाह खान' कह कर पुकारा. गांधी जी भी उन्हें ऐसे ही सम्बोधित करते थे.

प्रांरभिक जीवन

जन्म 6 फरवरी 1890 में ब्रिटिश भारत की पेशावर घाटी में उस्मानज़ई (वर्तमान में पाकिस्तान) के एक समृद्ध पश्तून परिवार में हुआ था. छोटी उम्र से ही खान भारतीयों के बीच शिक्षा और साक्षरता में सुधार के प्रयासों में शामिल रहे. बीस साल की उम्र में, उन्होंने कई स्कूलों की स्थापना की. 1910 में 20 वर्ष की आयु में खान ने अपने गृह नगर में एक मस्जिद में स्कूल खोला. लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने 1915 में उनके स्कूल को जबरदस्ती बंद कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि यह ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों का केंद्र था.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

खान मुख्य रूप से पश्तून नेता थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन के एक सक्रिय सदस्य थे. प्रारंभ में, बाचा खान का लक्ष्य पश्तूनों के सामाजिक उत्थान की ओर ले जाना था, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि वे विभिन्न पश्तून परिवारों के बीच शिक्षा और सदियों के रक्त संघर्ष के कारण पीछे रह गए हैं. कालांतर में, उन्होंने एकजुट, स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष भारत के गठन की दिशा में काम किया. इस मुकाम को हासिल करने के लिए, उन्होंने 1929 में खुदाई खिदमतगार ("भगवान के सेवक") की स्थापना की, जिसे आमतौर पर "रेड शर्ट्स" (सुरक्ष पौष) के रूप में जाना जाता था. यह भी पढ़ें : Lal Bahadur Shastri Death Anniversary 2021 Quotes: लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि, अपनों के साथ शेयर करें उनके ये महान विचार

आजादी की लड़ाई उन्होंने रौलट एक्ट के खिलाफ आंदोलन में अपनी भूमिका के साथ शुरुआत की, जहां उन्होंने महात्मा गांधी से मुलाकात की. उनकी सक्रियता के परिणामस्वरूप उन्हें 1920 और 1947 के बीच कई बार कैद और प्रताड़ित किया गया था. इसके बाद, वह खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गए और 1921 में उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में एक खिलाफत समिति के जिला अध्यक्ष चुने गए. उनकी “खुदाई खिदमतगार” संस्था ने 1947 तक विभाजन तक कांग्रेस पार्टी की सहायता की. अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान को सर्वप्रथम 1919 में गिरफ्तार किया गया था दूसरी बार सत्याग्रह आंदोलन के चलते उन्हें 1930 में गिरफ्तार किया गया. जेल में उन्होंने सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया.

संविधान निर्माण में योगदान

खान कांग्रेस पार्टी के टिकट पर उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से संविधान सभा के लिए चुने गए थे. वह बहस में तो सक्रिय सदस्य नहीं थे, हालांकि वे सलाहकार समिति के सदस्य थे.

भारत विभाजन

बादशाह खान देश के विभाजन के विरोधी थे, हालांकि विभाजन के बाद पाकिस्तान में बने रहने का विकल्प चुना. जहां महात्मा गांधी से प्रभावित, उन्होंने पश्तून समुदाय के लिए एक स्वायत्त क्षेत्र की वकालत करते हुए अहिंसा के आदर्श को जारी रखा. पाकिस्तान में उनकी सक्रियता के परिणामस्वरूप सत्रह वर्षों में बार-बार कारावास मिला. पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी. पाकिस्तान के विरुद्ध 'स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन' आजीवन चलाते रहे. उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी कीमत चुकानी पड़ी, वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा. जहां वह 1972 तक निर्वासन में रहे. 1970 में वे भारत के कई हिस्‍सों में घूमे. 1972 में वह पाकिस्तान लौटे. यह भी पढ़ें : 19 जनवरी का इतिहास: आज के ही दिन इंदिरा गांधी बनीं देश की प्रधानमंत्री, जानें कौन सी बड़ी घटनाएं घटी थीं

महत्वपूर्ण लेखन

उनकी रचनाओं में उनकी आत्मकथा माय लाइफ एंड स्ट्रगल: बादशाह खान की आत्मकथा और एक राष्ट्र के विचार शामिल हैं. खान अब्दुल गफ्फार खान को वर्ष 1987 में भारत सरकार की ओर से भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया.

मृत्यु

सन 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नजरबंद कर दिया. 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छा अनुसार उन्हें जलालाबाद अफगानिस्तान में दफ़नाया गया. उनके अंतिम संस्कार में 200,000 लोग शामिल हुए थे जिनमें तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह भी शामिल थे.