Children's Day 2019 Bal Diwas: वाकई बहुत बेशकीमती धरोहर है बचपन की अनमोल यादें. न कोई वैर, न घृणा, ना तृष्णा...हर गम से बेगाना.. यही चीज लुभाती थी हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) को और इसीलिए उन्होंने अपने जन्मदिन को बाल दिवस (Children's Day) के रूप में मनाने का फैसला किया था. क्योंकि वे बच्चों से बहुत प्यार करते थे. बच्चों के बीच पंडित जी बच्चे बन जाते थे, बच्चे भी उन्हें 'चाचा नेहरू' कहकर बुलाते थे. चाचा नेहरू अपनी शेरवानी में इसीलिए गुलाब लगाते थे, क्योंकि गुलाब की पंखुड़ियों में वे बच्चों की झलक पाते थे. वे जहां भी जाते गुलाब उनके सीने की शोभा बढ़ाता मिलता.
लेकिन क्या आज भी खिलते गुलाब में बचपन का अहसास होता है? नेहरू के गुलाब की उन पंखुड़ियों में अब खिला बचपन नहीं दिखता. आखिर क्या कारण हो सकता है? ऐसे में बाल दिवस की सार्थकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है.
बचपन कब फिसल गया पता नहीं चलता
कहावत मशहूर है कि बच्चे की प्रथम शिक्षिका उसकी मां होती है और प्रथम स्कूल उसका घर, लेकिन स्थिति इसके एकदम विपरीत है. छः माह का होते-होते उसे क्रैश में डाल दिया जाता है. यह कहते हुए कि माता-पिता चार पैसे कमा लेंगे तो बच्चे को हाई स्टडी करा सकेंगे. दो साल की उम्र तक आते-आते बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने का सिलसिला शुरू हो जाता है. इसके लिए उस पर परीक्षा और साक्षात्कार आदि का दबाव भी कम नहीं होता. स्कूल में दाखिल होते ही उसे मानसिक ही नहीं शारीरिक पीड़ाओं को भी झेलने की आदत डालनी पड़ती है. फिर स्कूल में मेरा बच्चा सबसे आगे के प्रेशर को झेलते हुए ट्यूशंस एवं होमवर्क के चक्रव्यूह में फंसकर उसका बचपन कब कहां फिसल जाता है पता ही नहीं चलता.
चिकित्सकों की बढ़ती चिंता
बच्चों में बस्ते के बढ़ते बोझ से छोटी उम्र में होने वाली सेहत संबंधी शिकायतों को देखने के बाद चिकित्सकों ने चेतावनी देनी शुरू कर दी है कि अगर यही स्थिति रहती है तो बच्चों के स्वाभाविक शारीरिक विकास में अवरोध के साथ ही वे हमेशा के लिए पीठ के दर्द के शिकार हो जाएंगे. स्कूलों में पढ़ाई और फिर घर पर होमवर्क के साथ-साथ ट्यूशंस की चुनौतियों के दबाव के चलते बच्चे कुंठित, एकाकी और सामाजिक ताने−बाने से भी दूर होते जा रहे हैं. बच्चों में निरंतर बढ़ती फ्रस्टेशन और डिप्रेशंस की शिकायतों से मनोचिकित्सक भी चिंतित हैं कि आज के बच्चे संवेदनहीन, कुंठित, जिद्दी और एकाकी होते जा रहे हैं.
इन सबके लिए सामाजिक ताने बाने में बिखराव और बोझिल तनावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को भी दोषी माना जा रहा है। एक मनोचिकित्सक के अऩुसार हैरानी तो तब होती है जब वे अपने स्कूल जाते बच्चे के सामने शर्त रखते हैं कि अगर उसके अच्छे मार्क्स आये तो वे उन्हें महंगा फोन देंगे. और माता-पिता कहते ही नहीं देते भी हैं. बच्चो फोन का कहां क्या और कैसे इस्तेमाल करता है, यह जानने की वे कभी कोशिश नहीं करते. बच्चों की दिनो-दिन बिगड़ती स्थिति से डॉक्टर एवं, मनोचिकित्सक ही नहीं शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा न्यायालय भी गंभीर चिंता जता चुके हैं.
बच्चों में बढ़ता कुपोषण
हम भले ही विकास की बड़ी-बड़ी बातें क्यों नहीं करते हों, मगर बच्चों में बढ़ते कुपोषण ने देश को शर्मसार किया है. युनिसेफ के ताजा सर्वे एवं 'द स्टेट ऑफ द वर्ल्डस चिल्ड्रन 2019' के अनुसार दुनिया में पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा या सरल शब्दों में 70 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. वहीं भारत की स्थिति और भी बुरी है, जहां 50 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं.
बाल मजदूरी
आज भारत में 14 साल से कम उम्र के बच्चों से मेहनत मजदूरी जैसा शारीरिक काम कराना अपराध घोषित कर दिया गया है. अब किसी भी हाल में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर नहीं लगाया जा सकता. पकड़े जाने पर कड़े दण्ड का प्रावधान है. मगर क्या कानून बना देना पर्याप्त होगा. अधिकांश बाल मजदूरी के पीछे मुख्य वजह घर की बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति होती है, जिसकी भरपाई करने के लिए बच्चों को कम उम्र में ईंटा ढोने से लेकर घरों में बर्तन मांजने, लोगों की अन्य चाकरी करना पड़ता है. एक अऩुमान के अनुसार भारत में लगभग 1.20 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी के कारण अपना बचपन खोते जा रहे हैं.
ऐसे में 'बाल दिवस' मनाने का भला क्या औचित्य हो सकता है? 'बाल दिवस' की सार्थकता इसी में है कि माता-पिता से लेकर स्कूल के अध्यापकों, शिक्षा निर्देशक एवं बाल कल्याण विभाग आदि मिलकर बच्चों के खत्म होते बचपन को उन्हें सौंपने की कोशिश करें, तभी देश को मिलेंगे नौनिहाल..