महानायक महाराणा प्रतापः जिसने हर मोड़ पर शहंशाह अकबर को दी मात!
वीर योद्धा महराणा प्रताप ( फोटो क्रेडिट- Wikimedia Commons )

महाराणा प्रताप का जन्म राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग के महाराजा उदय सिंह और महाराणी जीवत कंवर के घर में हुआ था. राणा सांगा के इस पौत्र को बचपन में 'कीका' नाम पुकारा जाता था. उनके शौर्य और पराक्रम के किस्से आज भी पूरे देश में पढ़े और सुने जाते हैं. युद्ध के मैदान में 72 किलो का कवच, 80 किलो का भाला, ढाल-तलवार के कुल वजन 208 किलो के साथ रणभूमि में दुश्मनों के छक्के छुड़ाना आम इंसान के वश की बात नहीं थी. उनकी छापामार युद्ध शैली से दुश्मनों में खौफ रहता था, उनके शौर्य एवं साहस का कायल स्वयं अकबर भी था. कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर सुनने पर अकबर भी रो पड़ा था. ऐसे पराक्रम और शौर्य की प्रतिमूर्ति थे महानायक राणा प्रताप सिंह.

कठिन परिस्थितियों में मिला सिंहासन

महाराणा प्रताप के पिता महाराजा उदयसिंह सबसे ज्यादा प्रेम अपनी राणी भटियानी से करते थे. उन्होंने पुत्र महाराणा प्रताप के हक का दमन करते हुए राणी भटियानी के पुत्र जगमल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, लेकिन उदय सिहं की मृत्यु के पश्चात 1 मार्च 1576 के दिन राजपूत सरदारों ने जगमल सिंह के बजाय महाराणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर बिठाया.

महाराणा प्रताप सिंह ने जब मेवाड़ की गद्दी संभाली, तब राजपुताना साम्राज्य की स्थिति बहुत दयनीय थी. अकबर की क्रूरता से त्रस्त राजपुताने के कई नरेशों ने आत्मसमर्पण कर दिया था, जबकि कई वीर प्रतापी राज्यवंशों ने सारा मान सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध बना लिये थे. लेकिन स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने मरते दम तक अकबर के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया. अकबर ने मेवाड़ को जीतने की काफी कोशिशें की, लेकिन महाराणा प्रताप ने उसकी हर कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब दिया. अकबर ने अजमेर को अपना केंद्र बनाकर राणा प्रताप पर भारी सैन्य बलों के साथ आक्रमण किया, लेकिन राणा प्रताप ने मुट्ठी भर सैनिकों के दम पर मुगलई सैनिकों को भागने पर विवश कर दिया.

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मेवाड़ पर आक्रमण और मात

अपनी विशाल मुगलिया सेना, भारी मात्रा में बारूदखाने, युद्ध की नवीन तकनीकों, सैकड़ों सलाहकारों, गुप्तचरों की लंबी सूची एवं हर कूटनीति के बाद भी जब अकबर महाराणा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तब उसने आमेर के महाराजा भगवानदास के भतीजे कुंवर मानसिंह (बुआ जोधाबाई एवं अकबर की पत्नी) को विशाल सेना के साथ डूंगरपुर और उदयपुर के शासकों को अपने अधीन कर लिया. अकबर ने राणा प्रताप के विश्वस्तों को अपने कब्जे में कर उऩकी शक्ति को कमजोर करने की कोशिश की, परंतु हर मोड़ पर उसे मात ही मिली.

हल्दीघाटी युद्धः

उसने अपनी विशाल मुगलिया सेना को मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए दुबारा भेजा. 30 मई 1576 बुधवार के दिन प्रातःकाल में हल्दी घाटी के मैदान में विशाल मुगलिया सेना और रणबांकुरी मेवाड़ी सेना के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा. अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खां, आसफ खां, महाराजा मानसिंह के साथ शाहजादा सलीम (जहांगीर) भी उस मुगलवाहिनी का संचालन कर रहे थे. जिसकी संख्या इतिहासकार करीब 1 लाख बताते हैं.

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इस युद्ध में भी राणा प्रताप ने अपने अभूतपूर्व वीरता और साहस से मुगल सेना के दांत खट्टे कर दिए. अकबर के हजारों सैनिक मौत के घाट उतार दिये गये. मानसिहं ने महाराणा प्रताप पर भारी सेना के साथ हमला कर दिया. राणा प्रताप बुरी तरह घायल हो गये, तब झाला सरदार उन्हें बड़ी समझदारी से युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित बाहर ले गये. इस तरह महाराणा प्रताप के जीवित बच निकलने से अकबर बहुत नाराज हुआ.

महिलाओं को देते थे पूरा सम्मान

महाराणा प्रताप महिलाओं को बहुत सम्मान करते थे. एक बार युद्ध में सेनापति मिर्जा खान के सैनिकों ने जब आत्मसमर्पण कर दिया था, तब उसके साथ शाही महिलाएं भी थीं. महिलाएं राणाप्रताप के शौर्य और वीरता से पूर्व परिचित थीं, लेकिन उनकी शत्रुता के किस्से भी बहुत सुन रखे थे. राजपूत सैनिकों से घिरने के पश्चात वे दहशत में थीं, लेकिन महाराणा प्रताप ने उन सभी महिलाओं का पूरा सम्मान करते हुए ससम्मान मिर्जा खान के पास पहुंचा दिया.

जहांगीर से युद्ध और जंगलों में ली शरण

हल्दीघाटी युद्ध में करीब 20 हजार राजपूतों के साथ राणा प्रताप ने राजा मानसिंह के 80 हजार की सेना का सामना किया. इसमें अकबर ने अपने पुत्र सलीम (जहांगीर) को भी युद्ध के लिए भेजा था, जहांगीर को भी मुंह की खानी पड़ी और उसे भी मैदान छोड़कर भागना पड़ा. बाद में सलीम ने दुबारा भारी-भरकम सेना के साथ राणा प्रताप पर आक्रमण कर दिया. इस बार भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें राणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक घायल हो गया था. राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों का मुकाबला किया, परंतु मैदानी तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने राजपूत का पराक्रम निष्फल रहा. 20 हजार राजपूत सैनिकों में से केवल 8 हजार सैनिक जीवित बचे. जैसे-तैसे वे युद्धभूमि से बचकर निकल सके. राणा प्रताप को जंगल में आश्रय लेना पड़ा.

पत्थरों को बनाया शैया और घास-फूस बना भोजन

राणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे. महारानी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और जंगल के पोखरों के जल निर्भर होकर रह गये थे. अरावली की गुफाएं ही उनका आवास थीं और पत्थरों को शैया बनाकर रातें गुजारते थे. उन्हें अपने परिवार और बच्चों की चिंता भी सता रही थी.

दीन-ए-इलाही धर्म को ठुकराया

अकबर चाहता था कि राणा प्रतापह अकबर की अधीनता स्वीकार कर 'दीन-ए-इलाही' धर्म अपना ले. इसके लिए उसने राणा प्रताप को कई प्रलोभन भी दिये, लेकिन राणा प्रताप अपने ‍‍निश्चय पर अडिग रहे. वे राजपूत की आन-बान-शान को इस मामूली संकट में भी नहीं भुला सके थे.

शाही शान को ठुकराया

इस संकट की घड़ी में भी कुछ छोटे-बड़े राजाओं ने राणा प्रताप से अपने राज्य में शाही अंदाज से रहने की गुजारिश की लेकिन राणा प्रताप ने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे शाही जिंदगी स्वीकार नहीं करेंगे. स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंद-मूल और फलों से ही पेट भरेंगे. जंगल में रहकर राणा प्रताप ने भीलों की शक्ति को पहचाना और छापामार युद्ध शैली से अनेक बार मुगल सेना को कठिनाइयों में डाला था।

भामा शाह की मदद से किया सैन्य संगठन

राणा प्रताप जिन दिनों जंगलों में रहकर अपनी शक्ति पुनः सहेज रहे थे, राजपूत भामाशाह ने उन्हें 20 लाख अशर्फियां और 25 लाख रुपए भेंट किया. महाराणा इस मदद से पुन: सैन्य-संगठन में लग गए. उनकी सेना में नवजीवन का संचार हुआ. उऩ्होंने पुनः कुम्भलगढ़ पर कब्जा स्थापित कर अकबर के शाही फौजों के थानों और ठिकानों पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया.

एक योद्धा की तरह वीरगति को प्राप्त हुआ यह महान योद्धा

चित्तौड़ को छोड़कर राणा प्रताप ने अपने समस्त दुर्गों को पुनः अपने कब्जे में किया. उदयपुर को राजधानी बनाया. उऩ्होंने चित्तौड़गढ़ व मांडलगढ़ के अलावा संपूर्ण मेवाड़ पर अपना राज्य पुनः स्थापित कर लिया था. इस बीच मुगलों ने कई बार भारी सैन्य बलों के साथ राणाप्रताप पर कई हमले किये, लेकिन राणाप्रताप ने उनके हर हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया. आखिरकार अनगिनत युद्ध और शिकार के दौरान लगी चोटों की वजह से महाराणा प्रताप की 29 जनवरी 1597 को चावंड मृत्यु को प्राप्त हुए.