फाल्गुन (Falgun) पूर्णिमा की रात तकरीबन संपूर्ण भारत में ‘होलिका दहन’ (Holika Dahan) सम्पन्न होता है. इसके पश्चात ही होलिकोत्सव के रंगों की शुरुआत हो जाती है. उत्तर भारत में कई जगहों पर इसे ‘छोटी होली’ के नाम से जाना जाता है. ‘होलिका दहन’ की रात चौराहों पर सूखी लकड़ियां, कण्डे, घास-फूस आदि शंक्वाकार में सजा पूरे विधि-विधान के साथ इसमें अग्नि प्रज्जवलित की जाती है. मान्यता है कि अगली सुबह इसी होलिका की राख को घर में लाया जाता है. कहीं इसका तिलक लगाकर होली के रंग शुरू करने की परंपरा है तो कहीं पूरे शरीर में इसका लेपन किया जाता है. इसे ही ‘धूल होली’ कहते हैं, हमारे पुराणों में इस ‘धूल होली’ की बड़ी मान्यता है. मान्यता है कि होलिका के भस्म को शरीर में लगाने से आसुरी शक्तियों से हमारी रक्षा होती है. प्रख्यात शास्त्री रवींद्र पाण्डेय बताते हैं कि इस भस्म अथवा भभूत का तिलक अथवा शरीर पर लेपन करने से पूर्व निम्न मंत्र का जाप करना अत्यंत आवश्यक होता है, वरना इसे लगाने का कोई लाभ नहीं मिलता है.
वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च
अतस्त्वं पाहि मां देवी! भूति भूतिप्रदा भव
सात सालों बाद पड़ रहा है ग्रहों का विशेष संयोग
श्री रवींद्र पाण्डेय आगे बताते हैं इस वर्ष ‘होलिका दहन’ एवं ‘होलिकोत्सव’ दोनों ही बड़े शुभ संयोगों में पड़ रहे हैं. सात वर्षों में ऐसा पहली बार हो रहा है जब देवगुरु बृहस्पति के उच्च प्रभाव का असर होलिका-दहन एवं होलिकोत्सव पर पड़ेगा. जिसका फल सकारात्मक होगा और व्यक्ति विशेष के लिए उन्नतिकारक साबित हो सकता है. इस वजह से अलग-अलग राशि वालों को अलग-अलग तरह के लाभ प्राप्त होंगे. परिवार पर छाया अनिष्ट छंटेगा. मान-सम्मान व पारिवारिक खुशियों की प्राप्ति होगी. हिंदू कलेंडर के अनुसार नये वर्ष में राजनीति से जुड़े नेताओं आदि को विशेष लाभ प्राप्त होगा.
श्री रवींद्र पाण्डेय के अनुसार इस बार होलिका-दहन फाल्गुन नक्षत्र में पड़ रहा है. वास्तव में यह शुक्र का नक्षत्र है, जो जीवन में उत्साह, आमोद-प्रमोद और ऐश्वर्य का प्रतीक होता है. होलिका का भस्म सौभाग्य व ऐश्वर्य देने वाला होता है. होलिका दहन में जो जौ व गेहूं के पौधे डालते हैं, फिर इसी का उबटन शररी में लगाकर उसके अवशेष को भी होलिका दहन में डालते हैं. ऐसा करने से सेहत अच्छा बना रहता है.
अगजा धूल से शुरू होती है होली
पंडित योगेश महाराज भी इस होलिकोत्सव को विशेष संयोगवाला मानते हैं. होलिका-दहन के वक्त उसकी पूजा के दरम्यान रक्षोघ्न सूक्त का पाठ करना चाहिए. अगजा यानी होलिका की तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए. होलिका में लोग गेहूं, चना अथवा पुआ आदि चढ़ाते हैं. इसके पश्चात सुबह उठकर होलिका की आंच में आलू, हरा चना (ओरहा) आदि पकाकर खाते हैं. इसके पश्चात अगजा यानि होलिका की धूल यानि राख को शरीर पर लगाकार रंगों की शुरुआत करते हैं. इसे ही ‘धूल होली’ के नाम से जाना जाता है. यह भी पढ़ें- Holi 2019: देश के अलग-अलग हिस्सों की 'अनूठी होली का अनोखा अंदाज'
भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अन्य पर्वों की तरह होली की परंपराएं भी बदल जाती हैं. हरियाणा में होलिका दहन के अगले दिन धुलैंडी की धूम रहती है. यहां धुलैंडी अथवा धूलिवंदन के मायने बदल जाते हैं. हरियाणियों में मान्यता है कि धूल-माटी उनका हमेशा से ओढ़ना-बिछौना रहा है. यह धूल हमारे मस्तक की शोभा होती है. इसलिए धुलैंडी के दिन हरियाणा के लोग होली के रंग खेलने से पूर्व एक दूसरे के शरीर पर धूल मलते हैं. इसके पश्चात ही रंगों की होली खेली जाती है.