Major Dhyanchand Special: अगर क्रिकेट जगत के पितामह आस्ट्रेलिया के डॉन ब्रेडमैन, फुटबॉल के ब्राजील निवासी पेले माने जाते हैं तो हॉकी के पितामह केवल मेजर ध्यानचंद ही हो सकते हैं. कहते हैं कि ध्यान चंद जब स्टिक लेकर मैदान में उतरते थे तो गेंद उनकी हॉकी से चिपक कर भागती थी, कुछ ने उनकी हॉकी में चुंबक तो कुछ ने तेज गोंद बताया. लेकिन ध्यान चंद करिश्माई खेल ने उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ के नाम से विभूषित किया. हिंदुस्तान के स्वर्णिम हॉकी इतिहास के इस महानायक ने साल 1928, 1932 और 1936 के ओलंपिक गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व किया, और तीनों ही गेम में भारत को गोल्ड मेडल दिलवाया. आज ‘राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड’ को इस महान खिलाड़ी के नाम परिवर्तित (ध्यान चंद खेल रत्न अवॉर्ड) कर सच्चे मायने में उन्हें सम्मानित किया गया है. आइये जानें इस करिश्माई हॉकी खिलाड़ी के जीवन से जुड़े कुछ प्रेरक एवं अचंभित करने वाले संस्मरण.
तब हॉकी नहीं पहलवानी से प्रेम था.
ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में एक ब्रिटिश भारतीय सेना के कर्मचारी समेश्वर दत्त सिंह और शारदा सिंह के घर पर हुआ था. पिता के निरंतर तबादलों के कारण वह अपनी शिक्षा के साथ तालमेल नहीं बिठा पर रहे थे. लिहाजा 6 साल की उम्र में उन्हें स्कूली पढ़ाई छोड़नी पड़ी. उन दिनों तक हष्ट-पुष्ट किशोर आयु के ध्यान सिंह की दिलचस्पी कुश्ती में ज्यादा थी. अकसर अखाड़ों में वे पहलवानी दिखाते थे. लेकिन 14 साल की उम्र में ऐसा कुछ हुआ कि वे पूरी तरह हॉकी के होकर रह गये. यह भी पढ़े: Major Dhyan Chand 115th Birth Anniversary: मेजर ध्यानचंद के 115वें जन्मदिन पर जानिए उनसे जुड़ी कुछ रोचक बातें
ऐसे एंट्री हुई हॉकी के खेल में
उस समय ध्यान सिंह की उम्र यही कोई 14 वर्ष की थी. वे अकसर अपनी मित्र मंडली के साथ पेड़ की एक टहनी तोड़कर लाते और कपड़ों की बॉल बनाकर हॉकी खेलते थे. एक बार वह अपने पिता के साथ मिलेट्री कैम्पस में एक हॉकी मैच देख रहे थे. उन्होंने देखा कि एक टीम दूसरी टीम पर लगातार गोल कर रही है. उन्होंने पिता से कहा, -अगर मैं अमुक टीम में होता तो स्थिति इससे बेहतर होती. कहते हैं कि ध्यान सिंह के इस दावे को पास में खड़े एक आर्मी ऑफीसर ने सुना, तो उन्होंने हंसते हुए ध्यान सिंह को कमजोर टीम के साथ खेलने की अनुमति दे दी. ध्यान सिंह ने अपनी अद्भुत खेल क्षमता का परिचय देते हुए एक के बाद एक चार गोल दागकर सारी स्थिति पलट दी. ध्यान सिंह में हॉकी की इस जादुई प्रतिभा से प्रभावित होकर आर्मी ऑफीसर ने उन्हें दो साल बाद उन्हें इंडियन आर्मी में शामिल कर लिया.
ध्यान सिंह से ऐसे बने ध्यान चंद
उन दिनों स्पोर्ट्स कोटे जैसी कोई बात नहीं थी. लिहाजा सेना में बतौर सिपाही नियुक्त होने के बाद ध्यान सिंह को हॉकी खेलने के लिए ज्यादा वक्त नहीं मिलता था. वे दिन में सेना का प्रशिक्षण पूरी करते थे. उनके पास केवल रात का वक्त बचता था. अपने खेल में धार लाने के लिए वह रात में चंद्रमा की रोशनी में प्रैक्टिस करने लगे. धीरे-धीरे यह उनकी डेली रुटीन का हिस्सा हो गया. उनके साथी रात में उन्हें प्रैक्टिस करते देख उनके नाम के साथ ‘चांद’ शब्द जोड़ना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे उनके साथ काम करने वाले सहयोगी भी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे. इस तरह वे ध्यान सिंह ध्यानचंद के रूप में लोकप्रिय हो गये.
क्या था हॉकी के इस जादुगर का तिलस्म?
ध्यानचंद का खेल कुछ ऐसा था कि एक बार गेंद उनकी स्टिक पर आती तो विपक्षी टीम को उनसे गेंद को छीनना आसान नहीं होता था. 1928 में एम्सटर्डम में हुए अपने पहले ओलंपिक में ध्यान चंद ने सबसे ज्यादा 14 गोल कर गोल्ड मेडल दिलवाया. वे जिस तरह से अपनी स्टिक पर गेंद लेकर भागते और विपक्षी तमाम कोशिशों के बावजूद उनसे गेंद हासिल नहीं कर पाते थेय. कुछ लोगों को शक हुआ कि उनकी स्टिक में जरूर कुछ विशेष बात है. कहा तो यहां तक जाता है कि नीदरलैंड (हालैंड) के खेल अधिकारियों ने ध्यान चंद की स्टिक तोड़कर जांच करवाई कि कहीं उसमें किसी विशेष प्रकार का चुंबक तो नहीं लगा है. शक निराधार होने पर उन्होंने ध्यान चंद से माफी मांगते हुए उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’ बताया.
ध्यानचंद से क्या कहा था डॉन ब्रैडमैन ने?
क्रिकेट के अजूबा कहे जानेवाले सर डॉन ब्रेडमैन का प्रशंसक दुनिया का कौन क्रिकेटर नहीं है. लेकिन ब्रेडमैन स्वयं इस हॉकी के जादूगर से प्रभावित थे. बात साल 1935 की है. ध्यान चंद की टीम ने ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर गयी थी, जहां उन्होंने 48 मैचों में 201 गोल किये. ऑस्ट्रेलिया में एक मैच देखने ब्रेडमैन भी आये थे. ध्यान चंद को ताबड़तोड़ गोल करते देख वे दंग रह गये. मैच खत्म होने पर वे ध्यानचंद से मिले और कहा, -आप तो ऐसे गोल कर रहे थे मानों रन बना रहे हैं. यही नहीं 1936 में बर्लिन ओलंपिक के दौरान जर्मनी के खिलाफ ध्यान चंद द्वारा लगातार गोल करते देख जर्मन तानाशाह हिटलर भी उनका मुरीद हो गया था. कहा जाता है कि उसने ध्यान चंद को जर्मनी की तरफ से खेलने का प्रस्ताव रखते हुए मुंहमांगी कीमत की पेशकश रखी थी, मगर ध्यान चंद ने बड़ी शिष्टता से मना करते हुए कहा था कि मुझे भारतीय ही बने रहने दीजिये.