बंगाल में आज भी कितनी गहरी हैं छुआछूत की जड़ें
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

संवैधानिक पाबंदी के बावजूद और आजादी के करीब आठ दशक बाद भी भारत के पश्चिम बंगाल में छुआछूत की प्रथा बदस्तूर जारी है. हाल की दो घटनाओं से यह बात सामने आई है.पश्चिम बंगाल में एक महीने के भीतर दो ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जिसने समाज को झकझोर दिया है. इनसे जहां बंगाल के प्रगतिशील होने की कलई खुली है तो दूसरी ओर नीति निर्धारकों और प्रशासकों पर भी सवाल खड़े हुए हैं. आखिर में अदालत के हस्तक्षेप के बाद दलितों को करीब तीन सौ साल बाद मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार मिला. वैसे, यहां यह दोनों घटनाएं न तो पहली हैं और न ही आखिरी. करीब तीन साल पहले भी हुगली जिले में एक मामला सामने आया था जहां दलितों से मंदिर के लिए दान और चंदा तो लिया जाता था, लेकिन उनके मंदिर के करीब फटकने पर पाबंदी थी.

भारत में संविधान के अनुच्छेद 17 के जरिए छुआछूत की प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई है. इसके अलावा नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 में भी इसके खिलाफ कानूनी प्रावधान हैं.

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भारत में मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर पाबंदी की घटनाएं नई नहीं हैं. सदियों से उनको अछूत मानते हुए उन पर मंदिर में प्रवेश और पूजा-पाठ पर पाबंदी रही है. वर्ष 1928 में वर्धा का लक्ष्मी नारायण मंदिर पहला ऐसा मंदिर था जिसने दलितों के लिए दरवाजे खोले थे. जहां तक बंगाल का सवाल है पहले भी ऐसी कुछ घटनाएं सामने आती रही हैं. तीन साल पहले हुगली जिले के आरामबाग के गोघाट गांव के दलितों ने इस प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई थी. उनका कहना था कि मंदिर से संबंधित तमाम काम करने और चंदा देने के बावजूद गांव के दलित समुदाय के 170 लोगों को मंदिर में प्रवेश करने या पूजा-पाठ का अधिकार नहीं है. उस समय इस मामले ने काफी सुर्खियां बटोरी थी.

दलित समुदाय के आंदोलन और प्रशासन के हस्तेक्षप के बाद यह मामला सुलझ गया था. गांव की प्रतिमा दास डीडब्ल्यू से कहती हैं, "हम मंदिर से संबंधित तमाम काम करते थे. हम नियमित रूप से चंदा भी देते थे. लेकिन हमें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था." स्थानीय प्रशासन ने जब इस मामले में हस्तक्षेप किया तो पुरोहितों और उच्च वर्ग के लोगों की दलील थी कि दलितों के प्रवेश से मंदिर अशुद्ध हो जाएगा. लेकिन किसी तरह वह मामला सुलझ गया.

संविधान में पाबंदी के बावजूद जारी है भेदभाव

राज्य के पूर्व बर्दवान जिले के गिधाग्राम में भी स्थानीय शिव मंदिर में करीब तीन सौ साल से दलितों को प्रवेश का अधिकार नहीं था. लेकिन अब साल भर से स्थानीय लोग अपने हक की आवाज उठा रहे थे. पुलिस और प्रशासन के हस्तक्षेप के बावजूद उच्च वर्ग के लोग दलितों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे. इसके बाद दलित समुदाय ने अदालत में याचिका दायर की थी. अदालत ने पुलिस और प्रशासन से यह मामला सुलझाने को कहा था.

इस मुद्दे पर विवाद बढ़ने पर मंदिर समिति की ओर से स्थानीय प्रशासन को भेजे एक पत्र में तीन सदी से भी ज्यादा पुरानी परंपरा का जिक्र किया गया था. उसमें कहा गया था, "मालाकार समुदाय के पास मंदिर के भीतर की साफ-सफाई की जिम्मेदारी है. घोष समुदाय के लोग भोग के लिए दूध और छेना पहुंचाते हैं. इसी तरह कुम्हार मिट्टी के बर्तन देता है. हाजरा समुदाय के लोग मशाल जलाने का काम करते हैं. कोटाल और बाइन समुदाय के लोग भी इसी तरह अलग-अलग काम करते हैं. लेकिन ब्राह्मण के अलावा दूसरे किसी समुदाय का व्यक्ति गर्भगृह में प्रवेश नहीं कर सकता है. यह परंपरा बीते तीन सौ साल से भी लंबे समय से चली आ रही है. इसलिए गांव के ज्यादातर लोग इस परंपरा को जारी रखने के पक्ष में हैं."

करीब दो सप्ताह तक चले बैठकों के सिलसिले के बाद दलितों को भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच मंदिर में प्रवेश की अनुमति तो मिल गई है. लेकिन उसके बाद गांव वालों ने उनका बायकाट शुरू कर दिया है. अब गांव के उच्च वर्ग के लोग मंदिर नहीं जा रहे हैं.

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दलित समुदाय की महिला षष्ठी दास ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "हमारे पुरखे इस मंदिर में प्रवेश का सपना देखते हुए ही गुजर गए. हमें आजीवन उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा है. लेकिन अब प्रशासन की मदद से हमें मंदिर में प्रवेश का अधिकार मिल गया है. उम्मीद है यह आगे भी जारी रहेगा."

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मंदिर में दलितों के प्रवेश का विरोध करने वाले लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि जातिगत भेदभाव या छुआछूत की प्रथा की वजह से ही दास समुदाय को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई थी. गांव के संजय घोष डीडब्ल्यू से कहते हैं, "हम तो सदियों पुरानी एक परंपरा को कायम रखने का प्रयास कर रहे थे. दूसरी नीची जातियों के लोगों को तो मंदिर में प्रवेश की अनुमति थी. लेकिन दास समुदाय के लोगो को कभी मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं मिला था."

इस विवाद को सुलझाने में अहम भूमिका निभाने वाली स्थानीय सब डिविजनल ऑफिसर (एसडीओ) अहिंसा जैन ने पत्रकारों को बताया था, "मौजूदा दौर में ऐसा जातिगत भेदभाव उचित नहीं है. हमने बैठक के जरिए गांव के पढ़े-लिखे लोगों को यही बात समझाई थी. यह एक 'टीम एफर्ट' था. इससे सदियों पुराने विवाद को सुलझाने में कामयाबी मिली."

इस घटना के करीब एक सप्ताह बाद ही नदिया जिले में भी ऐसा ही एक मामला सामने आया. कलकत्ता हाईकोर्ट के हस्तक्षेप और पुलिस-प्रशासन को कड़ी फटकार लगाने के बाद नदिया जिले के एक और शिव मंदिर में गांव के अछूत माने जाने वाले दलितों को करीब तीन सौ साल बाद पूजा का अधिकार मिला. अदालत के कड़े रवैए के बाद प्रशासन सक्रिय हुआ और बीते 20 मार्च को भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच अछूत (धोबी) समुदाय के पांच लोगों ने पहली बार बैरमपुर गांव के मंदिर में पूजा की. गांव में दलितों के करीब डेढ़ सौ परिवार रहते हैं.

गांव के दलितों ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर गुहार लगाई थी कि गाजन उत्सव के मौके पर भी उनको मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है. बंगाल में गाजन उत्सव बंगाली नववर्ष (पोइला बैसाख) से पहले चैत्र महीने के आखिरी सप्ताह में चरक पूजा के साथ पूरा होता है. यह उत्सव करीब एक सप्ताह तक चलता है.

मामले की सुनवाई पर अदालत ने क्या कहा

इस पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा भेदभाव मानवाधिकारों का उल्लंघन है. अदालत ने इस मामले में पुलिस के कामकाज पर सवाल उठाते हुए इस मामले में उसकी उदासीनता के लिए उसको भी फटकार लगाई. न्यायमूर्ति तीर्थंकर घोष ने सवाल किया कि आखिर पश्चिम बंगाल में ऐसा कैसे हो सकता है कि एक समुदाय के लोगों को उसका हक नहीं मिले? आखिर पुलिस क्या कर रही है? उनका कहना था कि इस राज्य में तो ऐसी समस्या नहीं थी. उसके बाद जिला प्रशासन सक्रिय हुआ और संबंधित पक्षों के साथ कई दौर की बैठकों के बाद दलितों को मंदिर में पूजा का अधिकार देने पर सहमति बनी.

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पहली बार इस मंदिर में पूजा करने वाली जया दास ने डीडब्ल्यू से कहती हैं, "हमारे पूर्वज इस मंदिर के सामने से गुजरते थे. लेकिन कभी उनको भीतर प्रवेश करने का अधिकार नहीं मिला था. आज हमने एक इतिहास रच दिया है. यह सिर्फ मंदिर में प्रवेश की नहीं, बल्कि हमारे सम्मान की लड़ाई थी."

पूजा करने वाली एक अन्य महिला सीमा दास का कहना था, "आज पहली बार महसूस हुआ कि हम भी इसी समाज का हिस्सा हैं."

इस गांव के एक दलित परिवार की महिला सुमित्रा दास डीडब्ल्यू से कहती हैं, "सदियों पुरानी इस परंपरा को तोड़ना आसान नहीं था. हम लंबे समय से प्रशासन से अपना हक मांग रहे थे. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. अब हमें न्याय मिला है. उनका सवाल था हमें मंदिर में प्रवेश क्यों नही करने दिया जाएगा? हमारा कसूर सिर्फ यही है कि हम दलित समुदाय के हैं. लेकिन भगवान तो सबके हैं."

दूसरी ओर, उस मंदिर के पुरोहित आशीष कुंडू की दलील देते हैं, "दुनिया के सभी मंदिरों की अपनी निजी परंपरा होती है. हर धर्मस्थल के अपने कुछ कायदे-कानून होते हैं. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि उसमें हस्तक्षेप करना कितना तर्कसंगत है."

अमर्त्य सेन के प्रतीची ट्रस्ट की स्टडी ने भी किया था इशारा

वैसे, इससे पहले भी अक्सर बंगाल में छुआछूत के मामले सामने आते रहे हैं. वर्ष 2001 में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के प्रतीची ट्रस्ट के एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि कुछ स्कूलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को बाकी छात्रों से अलग बिठाया जाता है, इसी तरह कुछ अभिभावकों ने दलित समुदाय के महिलाओं की ओर से मिड डे मील बनाने पर भी आपत्ति जताई थी.

समाजशास्त्रियों का कहना है कि सामान्य तौर पर प्रगतिशील समझे जाने वाले पश्चिम बंगाल में 21वीं सदी में ऐसे जातिगत भेदभाव की कल्पना तक नहीं की जा सकती. बर्दवान के एक समाजशास्त्री धीरेन गोस्वामी डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह मामला सामने नहीं आता तो हमें पता भी नहीं चलता कि जातिगत भेदभाव और छुआछूत की जड़ें अब भी लोगों के मन में काफी गहरे बसी हुई हैं. इसके लिए आम लोगों में भी जागरूकता फैलाना जरूरी है." उनका कहना है कि छूआछूत विरोधी कानून चाहे जितना कड़ा हो, लोगों की मानसिकता नहीं बदलने तक ऐसे मामले सामने आते रहेंगे.

एक कालेज में समाजशास्त्र पढ़ाने वाली प्रोफेसर सुष्मिता बाउरी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "दलितों के प्रति यह रवैया समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अक्सर देखने को मिलता है. साहित्य और संस्कृति भी इसके अपवाद नहीं हैं. हाल की घटनाओं से साफ है कि खुद को प्रगतिशील कहने वाला बंगाली समाज भी सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सका है."

एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता सुविमल मजूमदार कहते हैं, "सिर्फ कानून से यह प्रथा खत्म नहीं की जा सकती है. इसके लिए खासकर ग्रामीण इलाकों में आम लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है. जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, यह प्रथा जस की तस रहेगी."

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