क्या नेपाल में फिर से आएगा राजशाही का दौर
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

नेपाल में पिछले 16 सालों में 13 सरकारें सत्ता में आ चुकी हैं. इस राजनीतिक अस्थिरता से परेशान होकर जनता का एक वर्ग राजशाही की वापसी की मांग करने लगा है, लेकिन क्या ऐसा होना संभव है?नेपाल में 28 मार्च को राजशाही समर्थक समूहों ने राजधानी काठमांडू में बड़े स्तर पर प्रदर्शन किए. इस दौरान हिंसा भड़क उठी, जिसमें एक पत्रकार समेत दो लोगों की मौत हो गयी. वहीं, सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए.

समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक हिंसा की जांच हो रही है और अब तक सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. गृह मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है कि शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रखने के बजाए हिंसक गतिविधियों का सहारा लेने से किसी को भी लाभ नहीं होता.

तीन बार हुआ लोकतंत्र के लिए जनआंदोलन

नेपाल में राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच का संघर्ष नया नहीं है. पिछले 75 सालों में वहां लोकतंत्र के लिए तीन बड़े आंदोलन हो चुके हैं. नेपाल के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक, लोकतंत्र के लिए पहला आंदोलन 1950 के दशक में हुआ. इसके बाद नया संविधान बनाया गया और चुनाव भी हुए. हालांकि, कुछ समय बाद ही तत्कालीन राजा महेंद्र ने संसद को भंग कर दिया और पहली लोकतांत्रिक सरकार को भी हटा दिया.

1990 के दशक की शुरुआत में एक और जनआंदोलन हुआ. इसके बाद, तत्कालीन राजा बीरेंद्र ने संवैधानिक सुधारों को स्वीकार किया और एक बहुदलीय संसद की स्थापना की. राष्ट्र के प्रमुख राजा ही बने रहे लेकिन उनकी शक्तियां सीमित कर दी गयीं. साथ ही, नए संविधान में बोलने के अधिकार और समानता के अधिकार समेत कई नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को शामिल किया गया.

एक जून, 2001 को राजमहल में हुए हत्याकांड में नेपाल के लगभग पूरे शाही परिवार की हत्या कर दी गयी. तत्कालीन राजा बीरेंद्र के भाई ज्ञानेंद्र और उनका परिवार ही जीवित बच पाया. इसके बाद गद्दी पर बैठे ज्ञानेंद्र कुछ समय तक निर्वाचित सरकार के साथ रहे, लेकिन फिर उन्होंने संसद को बर्खास्त कर पूरी ताकत अपने हाथ में ले ली. अप्रैल, 2006 में लोकतांत्रिक पार्टियों ने मिलकर एक और जन आंदोलन शुरू किया. 19 दिन तक लगे कर्फ्यू के बाद राजा ज्ञानेंद्र ने सत्ता छोड़ी और संसद को फिर से बहाल कर दिया.

2008 में खत्म हुई 240 साल पुरानी राजशाही

साल 2008 में एक शांति समझौते के तहत नेपाल की 240 साल पुरानी राजशाही का अंत हुआ. इसी साल संविधान सभा के चुनाव हुए. निर्वाचित संविधान सभा ने नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया. नया संविधान लिखा गया जिसे 2015 में भारी बहुमत से लागू किया गया. अब नेपाल में भारत की तरह, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों पद होते हैं. राष्ट्रपति राष्ट्र के प्रमुख होते हैं, वहीं प्रधानमंत्री सरकार का नेतृत्व करते हैं.

लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद, नेपाल में राजनीतिक तौर पर स्थिरता नहीं रही है. राजशाही खत्म होने के बाद से वहां 16 सालों में 13 सरकारें देखने को मिली हैं. जानकारों के मुताबिक, सरकारों के प्रति जनता के असंतोष, राजनीतिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक वादों के पूरा ना होने के चलते एक वर्ग फिर से राजशाही की ओर देखने लगा है. पिछले महीने, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह ने राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के संकेत दिए थे. उसके बाद से राजशाही की वापसी की मांग में तेजी आयी है.

नेपाल में "महाराज लौटो, देश बचाओ" के नारे

क्या राजशाही की वापसी हो सकती है?

नेपाल की ज्यादातर प्रमुख पार्टियां राजशाही की बहाली के खिलाफ हैं. बीते 26 मार्च को नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर किसी ने देश की प्रगति में बाधा डालने की कोशिश की तो उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने पूर्व राजा को चुनौती दी कि अगर वे अपनी लोकप्रियता को मापना चाहते हैं तो राजनीतिक पार्टी बनाएं और चुनाव लड़ें. विपक्षी नेता पुष्प कमल दहल ने कहा कि राजशाही की बहाली का कोई भी प्रयास, नेपाल की गणतांत्रिक उपलब्धियों को कमजोर करेगा.

इस सवाल पर जानकारों की भी एक राय नहीं है. समाचार वेबसाइट देश संचार डॉट कॉम के संपादक युबराज घीमिरे ने डीडब्ल्यू से कहा कि राजशाही की बहाली के लिए नींव रखी जा चुकी है. उन्होंने आगे कहा कि भ्रष्टाचार और कुशासन के प्रति जनता में बढ़ती हताशा, राजतंत्र समर्थक भावना को मजबूत कर रही है. वहीं, यूएमएल की युवा नेता उषाकिरण तिमसेना राजशाही की वापसी के विचार को खारिज करती हैं. वे इसके पीछे, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र (77) की उम्र और उनके पुराने कामों को वजह बताती हैं.

राजनीतिक विश्लेषक सीडी भट्टा का मानना है कि जनता में फैला असंतोष, राजशाही को दोबारा से प्रभावशाली बनने का मौका दे रहा है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि लोग राजनीति के अभिजात वर्ग से निराशा महसूस कर रहे हैं, जिसके चलते राजशाही के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. हालांकि, वे यह भी कहते हैं कि राजशाही-समर्थक अभियान के पास नए और भरोसेमंद नेतृत्व की कमी है.

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