Chanakya Niti: मोक्ष-प्राप्ति के साथ-साथ यौन-सुख में ही मानव जीवन का कल्याण निहित है! जानें चाणक्य-नीति में ऐसा क्यों उल्लेखित है?
Chanakya Niti (img: file photo)

आचार्य चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य भी कहा जाता है, मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के सलाहकार थे. उनकी नीति जीवन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है, जैसे नेतृत्व, रणनीति, मानव व्यवहार, और सामाजिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए. ‘चाणक्य नीति’, आचार्य चाणक्य द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ है, जिसमें राजनीति, अर्थशास्त्र, नैतिकता और समाज के प्रबंधन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां उल्लेखित हैं. यह ग्रंथ चाणक्य के जीवन और उनके विचारों का संग्रह है, जो उनकी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता और प्रशासनिक क्षमताओं को दर्शाता है. चाणक्य नीति में दिए गए उपदेश आज भी लोगों के जीवन में प्रासंगिक हैं, खासकर जीवन के फैसले और सामाजिक संघर्षों के संदर्भ में. यहां उनकी नीति के एक ऐसे ही श्लोक पर बात करेंगे...

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये

स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धमोऽपि नोपार्जितः ।

नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितम्,

मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।।

अर्थात, जो प्राणी इस संसार के मोहजाल में फंसे हैं, लेकिन इस मायाजाल से निकलने के लिए न वेदों का पाठ करते हैं, न ईश्वर की उपासना, और ना ही अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह करते हैं, और ना ही सपने में स्त्री के सुंदर स्तन एवं जांघों का आलिंगन करते हैं, वे माता के यौवन रूपी वृक्ष काटने वाले कुल्हाड़े ही होते हैं.

वेद आदि धर्म-शास्त्रों में उल्लेखित है कि मनुष्य-जीवन अत्यंत दुर्लभ है. अनेक जन्मों के कष्ट भोगने के बाद ही जीवात्मा को मानव योनि में उत्पन्न होने का सौभाग्य प्राप्त होता है. इसलिए इस जन्म को विषय-वासनाओं में व्यर्थ गंवाने की बजाय मोक्ष-प्राप्ति हेतु उपयोग करना चाहिए. मनुष्य को मोक्ष तभी प्राप्त हो सकता है, जब उसका लोक-परलोक सुधर जाए. इसी संदर्भ में चाणक्य ने उपर्युक्त श्लोक द्वारा लोक-परलोक को सुधारने की बात कही है. वे कहते हैं कि जिसने लोक को सुधारने के लिए पर्याप्त धन का संग्रह नहीं किया, जो सांसारिक मायाजाल से मुक्त होने के लिए ईश्वर-भक्ति नहीं करता, जिसने कभी रति-क्रिया का स्वाद न चखा हो, ऐसे मनुष्य का न तो लोक में भला होता है और न ही परलोक सुधरता है. ऐसे मनुष्य माता के यौवन रूपी वृक्ष को कुल्हाड़े से काटने का कार्य करते हैं. अर्थात् उनके जन्म से न तो मां को सुख प्राप्त होता है, न ही कोई सार्थक श्रेय मिलता है, इसलिए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य को इस लोक में सांसारिक सुखों का यथावत् भोग करना चाहिए; लेकिन साथ ही धार्मिक कार्यों द्वारा परलोक को सुधारने के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए.