
आचार्य चाणक्य एक कुशल राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी, और सफल कूटनीतिज्ञ के रूप में दुनिया भर में विख्यात हैं. दूरदर्शी होने के कारण उनके द्वारा रचित चाणक्य-नीति सैकड़ों साल पुराना होने के बावजूद आज भी प्रासंगिक लगता है. आचार्य ने संस्कृत भाषा में समाज, धर्म और स्त्री-पुरुष जैसे तमाम विषयों पर अपनी नीतियों का उल्लेख किया है. उनकी नीति का मुख्य उद्देश्य जीवन को सरल, प्रभावी और सफल बनान है. यहां इस श्लोक में देखिये क्या कहना चाहा है आचार्य ने...
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः,
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः,
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना
अर्थात
उपयुक्त श्लोक का आशय यह है कि लोभी व्यक्ति गुणी या अवगुणी व्यक्ति को नहीं देखता. उसका मतलब अगर किसी दुष्ट व्यक्ति से भी निकलता है तो वह उसकी जी-हुजूरी करने को तैयार हो जाता है. वह अपने स्वार्थ को ही देखता है, अपने अवगुण को नहीं. चुगलखोर व्यक्ति, अपने पापों से नहीं डरता. वह चुगली करके कोई भी पाप कर सकता है. सच्चे व्यक्ति को तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती. सच्चाई सबसे बड़ी तपस्या है. मन से शुद्ध और सच्चे व्यक्ति को तीर्थों में जाने या न जाने से कोई मतलब नहीं रहता, अर्थात् मन चंगा तो कठौती में गंगा. जो व्यक्ति स्वयं सज्जन हो, उसे गुणों का उपदेश देने से क्या लाभ? यदि कोई व्यक्ति समाज में अपने अच्छे कार्यों से प्रसिद्ध हो चुका है, तो उसे सजने-संवरने की आवश्यकता नहीं होती. व्यक्ति के पास विद्या होने पर उसे धन से क्या मतलब? क्योंकि विद्या सबसे बड़ा धन है. बदनाम व्यक्ति को मृत्यु से क्या लेना-देना? बदनामी तो अपने आप में मौत से भी बढ़कर है.