Batukeshwar dutta Punyatithi 2022: भगत सिंह के साथ फांसी नहीं चढ़ने से क्यों दुखी थे बटुकेश्वर दत्त? जानें आजाद भारत में एक क्रांतिकारी का दुःखद अंत!

भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलाने हेतु अंग्रेजों के दांत खट्टे करनेवाले प्रमुख क्रांतिकारियों में एक थे बटुकेश्वर दत्त. 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में बम फेंककर देश भर में सुर्खियों में आने वाले बटुकेश्वर दत्त को ताउम्र इस बात का मलाल था कि उन्हें अपने 'साथ जियेंगे साथ मरेंगे' की कसम खाने वाले क्रांतिकारी साथियों (भगत सिंह, सुखदेव) के साथ फांसी पर झूलने का सौभाग्य नहीं मिला. बटुकेश्वर दत्त की पुण्यतिथि (20 जुलाई) पर जाने उनके जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग.

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को एक बंगाली कायस्थ (बंगाली) परिवार में नानी बर्दवान (बंगाल) में हुआ था. पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त' कानपुर में नौकरी करते थे. 1925 में बटुकेश्वर ने मैट्रिक पास किया, तभी उनके माता पिता का निधन हो गया. बटुकेश्वर ने पीपीएन कॉलेज, कानपुर से स्नातक की परीक्षा पास किया. कानपुर में उनकी मुलाकात भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद से हुई. बटुकेश्वर में देश-प्रेम के जज्बे को देखकर भगत सिंह ने उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जोड़ लिया. यहीं पर बटुकेश्वर दत्त ने बम बनाना सीखा.

पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में असेंबली में बम फेंकना और गिरफ्तारी

क्रांतिकारियों की बढ़ती हिंसक कार्यवाहियों पर नियंत्रण के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने पब्लिक सेफ्टी बिल का प्रस्ताव लाया. योजना के मुताबिक बटुकेश्वर दत्त को असेंबली में बम फेंकना और भगत सिंह को उनके साथ रहना था. 8 अप्रैल 1929 के दिन दिल्ली स्थित केंद्रीय विधान सभा (वर्तमान में संसद भवन) में बिल पास करवाना था. बटुकेश्वर बचते-बचाते दो बम लिये भगत सिंह के साथ सेंट्रल असेंबली के अंदर पहुंच गये. जैसे ही सभा में बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी से भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दो बम और पर्चे फेंकते हुए इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाया. बम शक्तिशाली नहीं थे, लिहाजा किसी की जान नहीं गई. लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने सुखदेव, राजगुरु. सुखदेव एवं बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया.

फांसी की सजा न मिलने से दुखी थे बटुकेश्वर दत्त

असेंबली में बम फेंकने के आरोप में भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फांसी की सजा मिली, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं होने से उन्हें कालापानी की सजा हुई.

बटुकेश्वर दत्त फांसी की सजा नहीं पाने के कारण बहुत दुखी थे, और स्वयं में अपमानित महसूस कर रहे थे. भगत सिंह को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बटुकेश्वर को पत्र लिखकर समझाया कि वह दुनियावालों को समझाएं कि क्रांतिकारी जान देकर आदर्शवादी बनने के बजाय जेल की अंधेरी कोठरी में रहने का जज्बा भी रखते हैं. कालापानी की सजा के दौरान उन्हें टीबी हो गई, उन्हें अंडमान से बांकीपुर सेंट्रल जेल पटना लाया गया. हालत बिगड़ी को उन्हें रिहा कर दिया गया. लेकिन महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के आरोप में उन्हें चार साल के लिए पुनः जेल में डाल दिया गया. 1945 में वे रिहा हुए, और 1947 में देश आजाद हो गया.

आजाद भारत में रोजगार के लिए संघर्ष

देश आजाद होने के बाद 1947 नवंबर में बटुकेश्वर दत्त अंजली नामक लड़की से शादी कर पटना में ही बस गये. देश आजाद हो गया, कांग्रेसियों ने अपने लोगों को स्वतंत्रता सेनानी का पेंशन देना शुरू किया. मगर बटुकेश्वर दत्त को भुला दिया गया. रोजगार नहीं मिलने पर बटुकेश्वर दत्त ने निजी बस चलाने के लिए परमिट की मांग की तो डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण मांगा. बटुकेश्वर दत्त निराश लौट आए. पेट भरने के लिए उन्हें कभी टूरिस्ट गाइड बनना पड़ा तो कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट. परमिट की बात एक अखबार के जरिये तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पता चली तो उन्होंने कमिश्नर को पत्र लिखकर डांटा, और बटुकेश्वर दत्त से माफी मांगी.

आजादी का विकृत स्वरूप

बताया जाता है कि बेरोजगार बटुकेश्वर दत्त की पत्नी एक मिडिल स्कूल में नौकरी करती थी, उसी के वेतन से घर का खर्च चलता था. कहते हैं कि दवा और इलाज के अभाव में बटुकेश्वर दत्त की हालत जब बिगड़ी तो उन्हें दिल्ली स्थित अस्पताल में भर्ती किया गया. जहां बुरी हालात में 20 जुलाई 1965 में बटुकेश्वर दत्त का निधन हो गया. मृत्योपरांत उन्हें फिरोजपुर (पंजाब) स्थित हुसैनीवाला बाग में अपने क्रांतिकारी साथियों भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु के पास अंतिम संस्कार किया गया. कहा जाता है कि गरीबी से लड़ते हुए अकसर बटुकेश्वर दत्त कहते थे कि अच्छा होता उन्हें भगत सिंह के साथ फांसी मिल गई होती, तो आजाद भारत का यह विकृत स्वरूप उन्हें देखने को नहीं मिलता.