
भारत में बाबर, अकबर, औरंगजेब जैसे मुगल शासकों के बाद अब उसके पहले के मुस्लिम शासक भी राजनीतिक विवाद की वजह बन रहे हैं. सवाल ये है कि मध्य काल के इन शासकों की नीतियों को एक बार फिर चर्चा में लाने का आखिर क्या कारण है.मुगल बादशाह औरंगजेब महान थे, धर्मांध थे, विस्तारवादी थे, हिन्दू विरोधी थे, उन पर गर्व किया जाए या उन पर शर्म किया जाए? ऐसे तमाम सवाल महाराष्ट्र से चलकर यूपी तक और फिर देश भर में चर्चा का विषय बने ही थे कि इसी बीच दिल्ली के लुटियंस जोन में इतिहास की चर्चा औरंगजेब से भी तीन सौ साल पहले तुगलक वंश तक चली गई.
हुआ यूं कि बीजेपी के कुछ मंत्री और सांसद नई दिल्ली स्थित तुगलक लेन के अपने सरकारी बंगलों पर मध्यकालीन इतिहास के तुगलक वंश पर ‘शर्म महसूस करते हुए' उसका नाम बदलने लगे. तुगलक लेन का नाम बदलकर इन लोगों ने उसे 'स्वामी विवेकानंद मार्ग' कर दिया.
हालांकि आधिकारिक तौर पर उस रोड का नाम अभी भी तुगलक लेन ही है और नाम बदलने वाले बीजेपी के एक सांसद और यूपी के पूर्व डिप्टी सीएम रह चुके डॉक्टर दिनेश शर्मा ने उस पर सफाई भी दी. लेकिन सच्चाई यही है कि अकबर रोड, बाबर रोड, औरंगजेब रोड, शाहजहां रोड, लोदी रोड....जैसे नामों को लेकर विवाद आए दिन होते रहते हैं. कुछ नाम बदले भी जा चुके हैं. यहां तक कि ऐसे कई शहरों के नाम भी बदले जा चुके हैं जो या तो कुछ मुस्लिम शासकों के नाम पर रहे हैं या फिर मुस्लिम धर्म के लोगों के नाम पर रहे हैं.
भारत में मुगलों के शासन की निशानी हैं ये नाम
जहां तक मुगलों या दिल्ली सल्तनत के दूसरे राजवंशों की बात है जिन्होंने 11वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक भारत पर शासन किया है, क्या उनका शासन इतिहास के पन्नों से मिटाया जा सकता है और क्या वास्तव में उन्होंने ऐसे ही काम किए हैं कि उन्हें इतिहास में ‘खलनायकों' के तौर पर देखा जाए? ये सवाल पहले भी उठते रहे हैं, अभी भी उठ रहे हैं और आगे भी उठते रहेंगे लेकिन इन सबके बीच ऐतिहासिक तथ्यों और विरोध के कारणों को जानना बेहद जरूरी है.
तुगलक वंश ने भारत के इतिहास में करीब सौ साल (1320-1413) तक शासन किया. तुगलक वंश के शासकों ने आर्थिक विकास के अलावा कला और संस्कृति के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है. तुगलक वंश के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र बना. कृषि को सुधारने और कृषि योग्य भूमि का विस्तार करने में वैज्ञानिक तरीके से प्रयास किए गए और उनका लाभ भी हुआ. सिंचाई के लिए नहरों का जाल बिछाया गया.
इतिहासकारों का कहना है कि तुगलक वंश के ज्यादातर शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और जाति, पंथ या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे डॉक्टर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं कि तुगलक वंश में जो सबसे ज्यादा चर्चित शासक रहा और जिसकी सबसे ज्यादा आलोचना की गई, उसकी धार्मिक और शासकीय नीतियां तो सबसे बेहतर थीं.
होली मनाने से लेकर, गंगाजल पीने वाला शासक था मुहम्मद बिन तुगलक
डीडब्ल्यू से बातचीत में प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं, "मुहम्मद बिन तुगलक पहला मुस्लिम शासक था जिसने होली के महत्व को समझा था. भाईचारे के महत्व को समझा था. खुद होली के त्योहार में शरीक होता था. उसने गंगा के अमृत तत्व को पहचाना था कि इसमें ऐसे खनिज और हर्बल पदार्थ हैं जो पीने योग्य हैं. खुद गंगाजल पीता था और यहां तक कि जब राजधानी परिवर्तन कर देवगिरि चला गया तो वहां जाने पर भी गंगाजल ही पीता था. कई गोशालाएं बनवाईं. ज्वालामुखी मंदिर के अलावा कई मंदिरों के दर्शन किए थे. चातुर्मास के लिए ब्राह्मण, बौद्ध, जैन धर्मों के लिए कई उपासना स्थल बनवाए."
तुगलक की धार्मिक सहिष्णुता के असर का जिक्र करते हुए वो कहते हैं, "उसके शासन काल में कुल 36 विद्रोह हुए लेकिन एक भी हिन्दू विद्रोह नहीं हुआ. पहली बार हिन्दुओं को उच्च पद पर बैठाया. पहला शासक है जो फसल चक्र की बात कर रहा है. रबी और खरीफ ही नहीं बल्कि जायद की फसल उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा यानी जमीन पर बारह महीने फसल लेने की योजना.”
माना जाता है कि मुहम्मद बिन तुगलक ने जैन विद्वानों को भी संरक्षण दिया. हालांकि उसके बाद के शासक फिरोज तुगलक की नीतियों में इस्लामी विचारों की कट्टरता जरूर दिखाई देती है लेकिन फिरोज तुगलक ने भी हिंदू विचारों और प्रथाओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए कई धार्मिक पुस्तकों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराया था.
तुगलक वंश ने दिल्ली सल्तनत के शासकों में सबसे लंबे वक्त तक शासन किया. इतिहास दिखाता है कि तुगलक वंश के शासकों ने राजस्व व्यवस्था, कृषि, सिंचाई, डाक व्यवस्था जैसे क्षेत्रों में जो काम किया है, वो आधुनिक युग में भी इन क्षेत्रों की रीढ़ बने रहे.
राजनीति के लिए इतिहास के काल खंड काटे नहीं जा सकते
इतिहासकारों का मानना है कि धार्मिक सहिष्णुता या कट्टरता की वजह धार्मिक कम राजनीतिक ज्यादा रही और इतिहास के किसी भी काल खंड को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता. लेकिन क्या इन्हीं के आधार पर शासकों का मूल्यांकन किया जाए या फिर उन्हें नायक या खलनायक घोषित कर दिया जाए या फिर उनके समग्र योगदान को देखने की जरूरत है?
ऐसे कई सवाल हैं जो अक्सर उठते रहते हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि सल्तनत या मुगल शासकों के विरोध के पीछे मुख्य वजह उनके राजनीतिक अवदान या धार्मिक कट्टरता और सहिष्णुता कम उनका मुस्लिम होना ज्यादा है और सबसे बड़ी बात ये कि जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए अक्सर ये बातें जानबूझकर शुरू कर जाती हैं.
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह इतिहास के भी अध्येता हैं. उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं. वो कहते हैं, "जब भी बुनियादी मुद्दे सामने आते हैं, विदेशी या घरेलू, बेरोजगारी वगैरह, तो ऐसे मुद्दों पर सरकार को काउंटर करना बड़ा मुश्किल हो रहा है. सही बात ये है कि अपनी विफलताओं से पीछा छुड़ाने के लिए ये सब किया जा रहा है. इतिहास में जो कुछ है उसका मूल्यांकन इतिहासकारों, प्रोफेसरों और छात्रों को करने दीजिए. राजनीति में इतिहास के पन्नों को घसीटने का क्या मतलब?"
उत्तर प्रदेश और आगरा से छत्रपति शिवाजी का क्या लेना देना है?
यही नहीं, कई धर्मगुरुओं ने भी इतिहास के पन्नों में मौजूदा राजनीति के तरीकों को ढूंढ़ने की कोशिश की आलोचना की है. इसी महीने मेरठ के एक कार्यक्रम में ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने इसकी तल्ख आलोचना की थी. उनका कहना था, "कभी औरंगजेब, तुगलक, नसीरुद्दीन यही सब देखते रहेंगे कि कभी अपना घर भी देखेंगे. मंदिरों की दुर्दशा हो रही है, उनको व्यापारिक केंद्र बनाया जा रहा है. हमारी गाय काटी जा रही है, इस पर भी ध्यान देना है. जो भी औरंगजेब थे वह चले गये, अब तो इतिहास हैं. इतिहास में ही उनका नाम है. इतिहास पढ़ने के लिए हम उन्हें पढ़ लें. इसके अलावा भला अब उनका क्या रेलेवेंस है कोई बताए. अब उसकी बात करके मुद्दों से क्यों भटकाया जा रहा है, जो हम सनातनियों के मुद्दे हैं उनपर चर्चा करें.”
औरंगजेब से चलकर तुगलक पर पहुंची बहस
नई दिल्ली में तुगलक लेन सड़क का नाम बदलने से पहले मुगल शासक औरंगजेब को लेकर बहस शुरू हुई और ये बहस आगे ही बढ़ती जा रही है. महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी को वो बातें कहने के लिए माफी मांगनी पड़ी और फिर उन्हें विधानसभा से निलंबित भी कर दिया गया जो बातें इतिहास की किताबों में लिखी हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस तो औरंगाबाद स्थित औरंगजेब के मकबरे को ही हटाने की बात कर रहे हैं जो फिलहाल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के संरक्षण में है. औरंगाबाद शहर का नाम पहले ही बदलकर संभाजी नगर कर दिया गया है.
प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं इन शासकों के विरोध के पीछे मुख्य वजह तो यही है कि ये मुसलमान हैं क्योंकि अकबर जैसे सहिष्णु शासक भी ऐसे लोगों की आलोचना से बचे नहीं हैं. हालांकि वो विरोध के पीछे कुछ अन्य कारणों का भी जिक्र करते हैं. वो कहते हैं, "पहली बात तो ये कि ऐसे लोग पढ़े लिखे नहीं हैं, उन्होंने गहराई में समकालीन स्रोतों को नहीं देखा है. औपनिवेशिक इतिहास को एक ओर खत्म करने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर उसी लेखन में जिसमें संप्रदायवाद है, उसी में धंसे जा रहे हैं. इन शासकों की वजह से आपका कोई खजाना तो बाहर जा नहीं रहा था. मतलब ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ' तो था ही नहीं."
जहां तक तुगलक लेन का नाम बदलने की बात है तो इस पूरे इलाके को बहुत ही व्यवस्थित तरीके से बसाया गया था और सड़कों का नामकरण भी भारत के इतिहास, संस्कृति और परंपरा से जुड़े लोगों के नामों पर किया गया था. अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "यहां जो प्रशासन है वो एनडीएमसी का है. इस इलाके के बहुत सारे नाम तो ब्रिटिश काल में ही रखे गए हैं. जो भी नाम रखे गए हैं वो इस बात को ध्यान में रखकर रखे गए हैं जिन्होंने दिल्ली में हुकूमत की. स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े लोगों के भी नाम हैं. भाई वीर सिंह जैसे साहित्य से जुड़े लोगों के नाम पर भी सड़कें हैं. मतलब, तमाम क्षेत्रों से जुड़े लोगों के नाम रखे गए हैं. हां, जो नाम हटाए गए, वो ब्रिटिश काल से जुड़े लोगों के नाम थे, जिनके नाम पर किसी को आपत्ति नहीं हुई. नामकरण के वक्त भी विवादित नामों से बचा ही गया लेकिन अब राजनीति हो रही है.”