हिंदुओं के साथ-साथ जैन धर्मावलंबियों में भी ‘अक्षय तृतीया’ का विशेष महत्व माना गया है. जैन समाज के अनुसार यह दिन उनके प्रथम तीर्थंकर में से एक, भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) से जुड़ा है. ऋषभदेव कालांतर में भगवान आदिनाथ के नाम से मशहूर हुए. वस्तुतः वे जैनी भिक्षु थे. इन्होंने जैन धर्म में आहराचार्य जैनी साधुओं तक आहार पहुंचाने का तरीका प्रचारित किया था. जैन भिक्षु खुद के लिए भोजन नहीं पकाते, ना ही किसी से कुछ मांगते थे, जो कुछ भी उन्हें लोग प्रेम से देते, वे उसे ही खाकर वक्त गुजार लेते थे. आइये जानें भगवान ऋषभदेव मूलतः कौन थे और अक्षय तृतीया का जैन समाज के साथ क्या संबंध है.
सिंहासन त्यागकर संन्यास धारण किया ऋषभदेव ने:
अक्षय तृतीया के साथ जैन समुदाय के साथ भी एक रोचक कथा जुड़ी है. हस्तिनापुर के गजपुर के महाराज ऋषभदेव का एक दिन राजसी वैभव से उचट गया. उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य अपने 101 पुत्रों में बांटने के बाद सांसारिक मोह-माया त्याग कर संन्यास धारण कर लिया था. कहते हैं कि उन्होंने छः माह तक बिना भोजन-पानी के तपस्या की. इसके बाद वे भोजन की उम्मीद में घर से बाहर ध्यान लगाकर बैठ गये. कहा जाता है कि जैनी संत आहार की प्रतीक्षा कर रहे थे. लोगों ने ऋषभदेव को राजा समझकर उन्हें सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात, हाथी, घोड़े, कपड़े आदि दान में दिये, परंतु ऋषभदेव सिर्फ भोजन करके पुनः एक साल की तपस्या करने चले गए. तपस्या पूरी करने के बाद ऋषभदेव वापस लौट कर सत्य और अहिंसा का घूम-घूम कर प्रचार करने लगे. इसी तरह घूमते हुए वह हस्तिनापुर के गजपुर पहुंचे. उन दिनों वहां के शासक उन्हीं के प्रपौत्र सोमयश थे.
ऋषभदेव के आने की खबर सुनते ही सारे नगरवासी उनके दर्शन को उमड़ पड़े. सोमयश के पुत्र श्रेयांस ने ऋषभदेव को पहचान लिया. उन्होंने ऋषभदेव को गन्ने का रस पिलाकर उनका पारण करवाया. संयोगवश वह वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीया का दिन था. उस दिन से तीर्थंकर ऋषभदेव के उपवास के महत्व को समझते हुए जैन समुदाय अक्षय तृतीया के दिन उपवास रखते हैं, और गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं. इसीलिए गन्ने के रस को ही ‘इक्षुरस’ भी कहा जाता है. इसीलिए यह तिथि ‘इक्षु तृतीया’ के नाम से भी मशहूर गया.
क्या है वर्षीतप:
मान्यता है कि भगवान ऋषभदेव ने लगभग 400 दिनों तक कठोर तपस्या के पश्चात पारायण किया था, चूंकि यह तपस्या एक वर्ष से भी ज्यादा अवधि की थी, इसलिए जैन धर्म इसे ‘वर्षीतप’ के नाम से पुकारते हैं. आज भी जैन धर्मावलंबी ‘वर्षीतप’ की आराधना कर स्वयं को धन्य समझते हैं. प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी से प्रारंभ होकर अगले वर्ष वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीया यानी अक्षय तृतीया के के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है. तपस्या शुरु करने से पूर्व इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है. तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है. वर्षीतप लगभग 13 महीने 10 दिन का होता है. यह उपवास बहुत कठिन होता है, उपवास में केवल गर्म पानी पिया जाता है.
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‘वर्षी तपस्या’ का महत्व:
भारत में इस प्रकार की ‘वर्षी तपस्या’ करनेवाले भारी तादाद में होते हैं. यह तपस्या जहां धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है, वहीं आरोगी जीवन में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है. इससे जीवन शांत, संयमपूर्ण बनने के साथ विचारों में शुद्धता एवं धार्मिक प्रवृत्तियों के प्रति रुचि जागती है. इसीलिए अक्षय तृतीया का दिन जैन धर्म में विशेष मान्यता है एवं मन-कर्म-वचन एवं श्रद्धा के साथ वर्षीतप करने वालों को महान पुरुष की श्रेणी में रखा जाता है.