Happy Pongal 2020: दक्षिण भारत के लिए अहम है पोंगल, जानें इसे कैसे मनाते हैं
हैप्पी पोंगल, (Photo Credits: File Photo)

माघ कृष्णपक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाने वाला ‘पोंगल’ दक्षिण भारत के प्रमुख पर्वों में एक है. प्रकृति को समर्पित यह पर्व फसलों की कटाई के बाद मनाया जाता है. यह प्रथा आदि काल से चला आ रहा है. चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में नये धान के चावल में गुड़ के साथ उबालकर उसे प्रसाद के रूप में सूर्य देवता को चढ़ाया जाता है. इस दिन घरों को साफ-सुथरा एवं सजा-धजा कर भाइयों को मिठाई खिलाकर बहनों द्वारा लंबी आयु के लिए प्रार्थना की जाती है, ठीक उसी तरह से जिस तरह उत्तर भारत में भैया दूज, छठ एवं गोवर्धन पर्व मनाया जाता है.

चार दिनों का चार पोंगल:

पोंगल मूलतः चार दिनों तक चलने वाला पर्व है. यह चार अलग-अलग पोंगलों के नाम से जाना जाता है. ये हैं क्रमशः भोगी पोंगल, सूर्य पोंगल, मट्टू पोंगल और कन्या पोंगल. पहले दिन भोगी पोंगल में इंद्र देव की पूजा की जाती है. क्योंकि इंद्र देव को भोगी के रूप में भी जाना जाता है. पोंगल के पहले दिन सर्वप्रथम घर के आस पास की साफ-सफाई करके कूड़ा-करकट को एकत्र करके जलाया जाता है. इसके पश्चात वर्षा एवं अच्छी फसल के लिए लोग इंद्रदेव की पूजा एवं आराधना करते हैं. अगले दिन सर्वप्रथम सूर्य देव की पूजा की जाती है. नये बर्तनों में नये चावल, मूंग की दाल एवं गुड़ मिलाकर केले के पत्ते पर गन्ना, अदरख आदि के साथ पूजा करते हैं. सूर्य को चढ़ाए जाने वाले इस प्रसाद को सूर्य के प्रकाश में ही बनाया जाता है. तीसरे दिन पशुधन की पूजा होती है. यह दिन वस्तुतः मट्टू पोंगल के नाम से पुकारते हैं. यहां मट्टू का अर्थ शिव जी की सवारी नंदी से है. इस दिन नंदी के प्रतीक स्वरूल बैलों की पूजा का विधान है.

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चौथा पोंगल कन्या पोंगल कहलाता है. इस दिन निकटतम किसी भी प्राचीन काली मंदिर में काली देवी की पूजा होती है. इस दिन दीपावली की तरह लक्ष्मी की पूजा और फिर गोवर्धन पूजा होती है. घर के बाहर रंगोली बनाई जाती है, नए कपड़े और बर्तन खरीदे जाते हैं. बैलों और गायों के सींग रंगे जाते हैं. सांडों-बैलों के बीच रेस मुकाबले होते हैं. इस दिन विशेष रूप से खीर बनाई जाती है. इसके साथ ही मिठाई और मसालेदार पोंगल भी तैयार किए जाते हैं. चावल, दूध, घी, शकर से भोजन तैयार कर सूर्यदेव को भोग लगाते हैं. कई जगहों पर इस दिन के पर्व में केवल महिलाएं ही शामिल हो सकती हैं.

सांड़ों को परास्त करने वाले को कन्या अपना पति चुनती हैं:

प्राचीनकाल में द्रविण शस्य उत्सव के रूप में इस पर्व को मनाया जाता है. दक्षिण के एक ख्यातिप्राप्त प्राचीन मंदिर से प्राप्त शिलालेख के अनुसार किलूंटूंगा राजा पोंगल के विशेष पर्व पर जमीन और मंदिर गरीबों को दान दिया जाता था. इस अवसर पर नृत्य समारोह के अलावा सांड के जंग लड़ने की प्रथा थी. इस प्रतियोगिता में जो जीत जाता था, कन्याएं उसके गले में वरमाला पहनाकर उसे अपना पति स्वीकारती थीं.

पोंगल की पारंपरिक कथा:

पोंगल की यह पारंपरिक कथा मदुरै के एक पति-पत्नी कण्णगी और कोवलन से जुड़ी है. कहा जाता है कि एक बार कण्णगी के कहने पर कोवलन पायल बेचने सुनार के पास गया. पायल देखने के बाद सुनार ने राजा के पास सूचना भिजवायी कि आपकी चोरी हुई पायल से हूबहू मिलती पायल एक दंपत्ति बेचने के लिए आया हुआ है. राजा को इस बात पर बहुत गुस्सा आया. उसने बिना जांच का आदेश दिये पति को मौत की सजा सुना दी. पति के साथ हुई इस ज्यादती से क्रोधित होकर कण्णगी ने शिव जी कठिन तपस्या की और जब शिव जी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिया तो उसने भगवान शिव से प्रार्थना मांगा कि उस राजा का सर्वस्व नष्ट कर दीजिये.

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यह बात जब राज्य की जनता को पता चली तो वहां की महिलाओं ने मिलकर किलिल्यार नदी के किनारे काली माता की आराधना की और माता काली से प्रार्थना की कि वह कण्णगी के मन में राजा के प्रति दया भाव पैदा करने की प्रार्थना करे. माता काली ने महिलाओं के व्रत से प्रसन्न होकर कण्णगी में राजा के प्रति दया भाव जाग्रत किया और राजा व राज्य की रक्षा की. तभी से प्रत्येक वर्ष काली मंदिर में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है. इस तरह चार दिनों के पोंगल का समापन होता है।