Happy Gandhi Jayanti 2019: देश ही नहीं सारी दुनिया जानती और मानती है कि ब्रिटिश हुकूमत को भारत से बाहर खदेड़ने में महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के दो हथियार बेहद कारगर साबित हुए थे, एक ‘अहिंसा’ (Ahinsa) और दूसरा ‘सत्याग्रह’ (Satyagrah). लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि मोहनदास करमचंद गांधी (Mohandas Karamchand Gandhi) नामक एक वकील को ये हथियार कब कैसे और कहां मिले. यहां हम आपको एक कमजोर गांधी को महात्मा गांधी जैसी सशक्त शख्सियत बनने की रोचक गाथा बताएंगे.
बात 7 जून 1893 की दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से शुरू होती है. एक युवा भारतीय वकील मोहनदास करमचंद गांधी काला कोट सर पर पगड़ी बांधे ट्रेन के फर्स्ट क्लास से डरबन से प्रिटोरिया जा रहा होता है. प्रिटोरिया में वह अपने मुवक्किल दादा अब्दुल्लाह के एक केस के सिलसिले में जा रहा होता है. डरबन से चली ट्रेन कुछ समय के लिए पीटरमारित्जबर्ग स्टेशन पर रुकती है. तभी ट्रेन का कंडक्टर आता है और गांधी से कहता है कि वह तुरंत फर्स्ट क्लास की बोगी से उतर जाए, क्योंकि इस दर्जे में केवल गोरे अंग्रेज ही यात्रा कर सकते हैं. गांधी कंडक्टर को अपना फर्स्ट क्लास का टिकट दिखाते हैं. कंडक्टर गांधी का टिकट फेंककर उन्हें धक्का देते जबर्दस्ती ट्रेन से उतार देता है. पीटरमारित्जबर्ग का यह इलाका जून माह में भी ठंड के प्रकोप से घिरा होता है. उस कड़कती ठंडी रात में गांधी स्टेशन के वेटिंग रूम में पूरी रात गुजारते हैं. कड़कड़ाती ठंड से बचने के लिए गांधी के संदूक में ओवरकोट होने के बावजूद वह उसे नहीं पहनते कि कहीं गोरी सरकार के नुमाइंदे उनके इस अंग्रेजी पोशाक के पहनने का भी विरोध ना करें.
क्यों गये थे गांधी दक्षिण अफ्रीका
दरअसल, मोहनदास करमचंद गांधी साल 1893 में वकालत के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गये हुए थे. वहां एक भारतीय मूल के कारोबारी कंपनी के साथ उनका एक साल का अनुबंध था. यह कंपनी द अफ्रीका के ट्रांसवाल डिस्ट्रिक्ट में थी. ट्रांसवाल दक्षिण अफ्रीका का वह क्षेत्र है, जहां 17वीं सदी में डच मूल के लोगों ने जबरन कब्जा कर लिया था. क्योंकि ब्रिटिश गवर्नमेंट ने ट्रांसवाल स्थित केप कालोनी से डच मूल के लोगों को भगा दिया था. उन दिनों ट्रांसवाल में भारतीयों की खासी आबादी थी. साल 1860 में भारत सरकार (ब्रिटिश अधिकृत) के साथ हुए एग्रीमेंट के तहत भारतीय मूल के लोगों को इसी शर्त पर वहां रहने की अनुमति दे रखी थी कि भारतीय मजदूरों को गन्ने के खेतों में बंधुवा मजदूर बनकर काम करना होगा, लेकिन इसके बावजूद भारतीय मजदूरों को मजदूरी नहीं दी जाती थी. उनसे ज्यादा टैक्स भी वसूला जाता था. संयोग से उसी दरम्यान डरबन में गांधी को भी इसी तरह के नस्लभेदी का शिकार बनना पड़ा. यही नहीं पीटरमारित्जबर्ग की घटना से पूर्व गांधी के साथ एक और नस्लभेदी घटना घट चुकी थी, जब वहां की एक अदालत में जज ने उऩसे पगड़ी उतारकर मुकदमा में शामिल होने का आदेश दिया था.
विरोध से उपजा विद्रोह
इस तरह की घटनाओं ने गांधी के मन में रंगभेद की नीति के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. उन्होंने तय कर लिया कि दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के साथ हो रही रंगभेद की नीति को खत्म करके ही वह भारत वापस लौटेंगे. पीटरमारित्जबर्ग के एक गाईड शाइनी ब्राइट ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि मोहनदास करमचंद गांधी एक कमजोर शख्सियत वाले भारतीय थे, लेकिन पीटरमारित्जबर्ग की घटना ने उनके भीतर भारतियों के साथ हो रही विरोधात्मक कार्रवाहियों के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला जगा दी थी. रंगभेद के खिलाफ उन्होंने हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन और सत्याग्रहों के ज़रिए दक्षिण अफ्रीका के मूल भारतीयों की आवाज को बुलंद किया. यह सारा कार्य गांधी ने सत्य, शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए किया. अगर कहा जाए कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति का विरोध करते हुए गांधी को ‘अहिंसा और ‘सत्याग्रह’ रूपी बड़ा शस्त्र मिल गया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगा. गांधी जी जानते थे कि विद्रोह उसी स्तर का हो, कि दोनों पक्षों के बीच बातचीत की गुंजाइश और सौहार्द भी बना रहे. इससे स्थिति विस्फोटक नहीं होती और ना ना करते काम बन जाते हैं.
‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ ने बनाया ‘महात्मा गांधी’
वर्ष 1907 में ट्रांसवाल सरकार द्वारा एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट एक्ट बनाये जाने के खिलाफ गांधी ने अहिंसक आंदोलन छेड़ा था. इसके तहत भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में रजिस्ट्रेशन करवाना अनिवार्य कर दिया गया था. इस एक्ट का विरोध करते हुए गांधी को कई बार जेल भी जाना पड़ा. लेकिन अंततः वह अंग्रेज सरकार को समझौता के लिए विवश करने सफल हुए थे. यही नहीं अहिंसात्मक सत्याग्रह कर गांधी ने 1914 में इंडियन रिलीफ़ एक्ट पास करवाकर केवल भारतीयों पर लगने वाला टैक्स भी खत्म कराया. इसका एक लाभ यह भी मिला कि अब भारतीय द. अफ्रीका में विवाह करने के लिए स्वतंत्र थे. अब तक साउथ अफ्रीका के भारतीय मूल के लोगों के बीच गांधी ‘महात्मा गांधी’ के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे. यह भी पढ़ें: World Peace Day 2019: प्रासंगिक है विश्व में शांति! क्यों मानती है दुनिया आज भी गांधी की अहिंसा नीतियों को!
भारतीयों के लिए तीर्थस्थल द अफ्रीका का यह स्टेशन
साउथ अफ्रीका के जिस स्टेशन पर गांधी को ट्रेन से धक्का देकर उतारा गया था, वहां एक तख्ती लगी हुई है, जिस पर लिखा है, इस घटना ने गांधी को महात्मा गांधी बनाने में अहम भूमिका निभाई है. दक्षिण अफ्रीका आनेवाले भारतीयों के लिए तीर्थ स्थल बन चुका है यह रेलवे स्टेशन. जिस वेटिंग रूम में गांधी जी ने रात गुजारी थी, वहां गांधी म्युजियम बनाया गया है. उस सर्द रात की घटना को सिलसिलेवार वर्णित किया गया है, जिसे पढ़कर किसी की भी आंखें भर आती है. उस घटना से जुड़े दस्तावेज और गांधी की बैरिस्टर वाली तस्वीर भी यहां अंकित है. बाहर प्रांगण में गांधी जी की एक प्रतिमा भी दिखेगी, जिसका अनावरण महात्मा गांधी की 125 वर्षगांठ पर तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने किया था. कहा जाता है कि स्वर्गीय सुषमा पेंट्रिच से पीटरमारित्जबर्ग तक ट्रेन में सफर कर यहां तक पहुंची थीं.
महात्मा गांधी की उस संघर्ष का ही नतीजा था कि आज दक्षिण अफ्रीका में सबसे ज्यादा भारतीय मूल के लोग रहते हैं. संपूर्ण क्षेत्र में इन भारतीयों की अपनी पहचान है. यहां के बड़े व्यवसायियों में बहुतायत भारतीय मूल के लोग शुमार हैं. काफी तादाद में लोग सरकारी नौकरी भी करते हैं. खेल जगत में भी अनिवासी भारतीयों की बेशुमार संख्या है.1914 में भारत लौटने के बाद महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ अपने इसी अमोघ ब्रह्मास्त्र ‘सत्य’, ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ का प्रयोग कर देश को सैकड़ों साल की गुलामी से आजादी दिलाई.