उम्रकैद का मतलब है कठोर कारावास : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब है कठोर कारावास. न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने इस बहस को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया कि क्या उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाना चाहिए.

देश Diksha Pandey|
उम्रकैद का मतलब है कठोर कारावास : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट (Photo Credits: IANS)

नई दिल्ली, 15 सितंबर : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मंगलवार को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब है कठोर कारावास. न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने इस बहस को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया कि क्या उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाना चाहिए. पीठ ने कहा, "इन एसएलपी में विचार के लिए उत्पन्न होने वाले मुद्दों पर इस अदालत की आधिकारिक घोषणाओं के मद्देनजर, उस सीमित बिंदु की फिर से जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है, जिसके लिए नोटिस जारी किया गया था. इसलिए, विशेष अनुमति याचिकाएं खारिज की जाती हैं."

शीर्ष अदालत का फैसला दो अलग-अलग अपीलों पर आया, जहां सवाल उठाए गए थे कि क्या उन्हें दी गई उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाएगा? पीठ ने कहा कि महात्मा गांधी हत्याकांड में दोषी नाथूराम गोडसे के छोटे भाई की संलिप्तता सहित विभिन्न फैसलों में उठाए गए मुद्दे को आधिकारिक रूप से तय किया गया है. अपील उच्च न्यायालयों के दो फैसलों को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के लिए याचिकाकर्ताओं की सजा को बरकरार रखा गया था.

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उम्रकैद का मतलब है कठोर कारावास : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब है कठोर कारावास. न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने इस बहस को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया कि क्या उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाना चाहिए.

देश Diksha Pandey|
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सुप्रीम कोर्ट (Photo Credits: IANS)

नई दिल्ली, 15 सितंबर : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मंगलवार को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब है कठोर कारावास. न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने इस बहस को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया कि क्या उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाना चाहिए. पीठ ने कहा, "इन एसएलपी में विचार के लिए उत्पन्न होने वाले मुद्दों पर इस अदालत की आधिकारिक घोषणाओं के मद्देनजर, उस सीमित बिंदु की फिर से जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है, जिसके लिए नोटिस जारी किया गया था. इसलिए, विशेष अनुमति याचिकाएं खारिज की जाती हैं."

शीर्ष अदालत का फैसला दो अलग-अलग अपीलों पर आया, जहां सवाल उठाए गए थे कि क्या उन्हें दी गई उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाएगा? पीठ ने कहा कि महात्मा गांधी हत्याकांड में दोषी नाथूराम गोडसे के छोटे भाई की संलिप्तता सहित विभिन्न फैसलों में उठाए गए मुद्दे को आधिकारिक रूप से तय किया गया है. अपील उच्च न्यायालयों के दो फैसलों को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के लिए याचिकाकर्ताओं की सजा को बरकरार रखा गया था.

शीर्ष अदालत ने कहा कि उसने पंडित किशोरी लाल बनाम राजा सम्राट के 1945 के प्रिवी काउंसिल मामले और गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र के मामले में पहले के फैसलों पर भरोसा किया. इसी तरह सन् 1985 में नायब सिंह बनाम पंजाब के मामले में कानून के एक ही प्रश्न से निपटने के दौरान पहले के फैसलों पर भरोसा किया. पीठ ने कहा कि "आजीवन कारावास की सजा को आजीवन कठोर कारावास के बराबर किया जाना चाहिए." यह भी पढ़ें : Maharashtra: भाजपा नेता प्रवीण दारेकर के बयान को लेकर विवाद, राकांपा ने जतायी कड़ी आपत्ति

सिंह के मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा तर्क दिए गए बिंदुओं में से एक आजीवन कारावास की सजा से संबंधित है, जिसे आजीवन कारावास के बराबर नहीं किया जाना चाहिए. इसमें कहा गया है, "इस अदालत द्वारा नायब सिंह मामले में निर्धारित कानून का पालन इस अदालत ने तीन फैसलों में किया - दिलपेश बालचंद्र पांचाल बनाम गुजरात राज्य, सत पाल उर्फ साधु बनाम हरियाणा राज्य और मोहम्मद मुन्ना बनाम भारत संघ."

शीर्ष अदालत ने मोहम्मद अल्फाज अली द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया, जिसे आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. 2016 में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ उनकी अपील को खारिज कर दिया था. जुलाई 2018 में, शीर्ष अदालत ने आजीवन कारावास की सजा देते समय कठोर कारावास निर्दिष्ट करने के औचित्य के सवाल तक सीमित उनकी अपील पर सुनवाई के लिए सहमति व्यक्त की थी. शीर्ष अदालत ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अन्य अपील को भी खारिज कर दिया, जिसमें आईपीसी की धारा 302 के तहत एक व्यक्ति की सजा को बरकरार रखा गया था.

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नई दिल्ली, 15 सितंबर : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मंगलवार को दोहराया कि आजीवन कारावास की सजा का मतलब है कठोर कारावास. न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की पीठ ने इस बहस को फिर से शुरू करने से इनकार कर दिया कि क्या उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाना चाहिए. पीठ ने कहा, "इन एसएलपी में विचार के लिए उत्पन्न होने वाले मुद्दों पर इस अदालत की आधिकारिक घोषणाओं के मद्देनजर, उस सीमित बिंदु की फिर से जांच करने की कोई आवश्यकता नहीं है, जिसके लिए नोटिस जारी किया गया था. इसलिए, विशेष अनुमति याचिकाएं खारिज की जाती हैं."

शीर्ष अदालत का फैसला दो अलग-अलग अपीलों पर आया, जहां सवाल उठाए गए थे कि क्या उन्हें दी गई उम्रकैद की सजा को आजीवन कारावास माना जाएगा? पीठ ने कहा कि महात्मा गांधी हत्याकांड में दोषी नाथूराम गोडसे के छोटे भाई की संलिप्तता सहित विभिन्न फैसलों में उठाए गए मुद्दे को आधिकारिक रूप से तय किया गया है. अपील उच्च न्यायालयों के दो फैसलों को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के लिए याचिकाकर्ताओं की सजा को बरकरार रखा गया था.

शीर्ष अदालत ने कहा कि उसने पंडित किशोरी लाल बनाम राजा सम्राट के 1945 के प्रिवी काउंसिल मामले और गोपाल विनायक गोडसे बनाम महाराष्ट्र के मामले में पहले के फैसलों पर भरोसा किया. इसी तरह सन् 1985 में नायब सिंह बनाम पंजाब के मामले में कानून के एक ही प्रश्न से निपटने के दौरान पहले के फैसलों पर भरोसा किया. पीठ ने कहा कि "आजीवन कारावास की सजा को आजीवन कठोर कारावास के बराबर किया जाना चाहिए." यह भी पढ़ें : Maharashtra: भाजपा नेता प्रवीण दारेकर के बयान को लेकर विवाद, राकांपा ने जतायी कड़ी आपत्ति

सिंह के मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा तर्क दिए गए बिंदुओं में से एक आजीवन कारावास की सजा से संबंधित है, जिसे आजीवन कारावास के बराबर नहीं किया जाना चाहिए. इसमें कहा गया है, "इस अदालत द्वारा नायब सिंह मामले में निर्धारित कानून का पालन इस अदालत ने तीन फैसलों में किया - दिलपेश बालचंद्र पांचाल बनाम गुजरात राज्य, सत पाल उर्फ साधु बनाम हरियाणा राज्य और मोहम्मद मुन्ना बनाम भारत संघ."

शीर्ष अदालत ने मोहम्मद अल्फाज अली द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया, जिसे आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. 2016 में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ उनकी अपील को खारिज कर दिया था. जुलाई 2018 में, शीर्ष अदालत ने आजीवन कारावास की सजा देते समय कठोर कारावास निर्दिष्ट करने के औचित्य के सवाल तक सीमित उनकी अपील पर सुनवाई के लिए सहमति व्यक्त की थी. शीर्ष अदालत ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अन्य अपील को भी खारिज कर दिया, जिसमें आईपीसी की धारा 302 के तहत एक व्यक्ति की सजा को बरकरार रखा गया था.

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