कैसा दिखता है भारत में रह रहे रोहिंग्या बच्चों का भविष्य
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

भारत में रह रहे कई रोहिंग्या बच्चे बेहतर शिक्षा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. दिल्ली में रहने वालों को राजधानी के स्कूलों में दाखिला नहीं मिल पा रहा है. इस बीच, भारत में रोहिंग्या विरोधी भावनाएं भी बढ़ रही हैं.7 साल की आयशा हर सुबह उठकर अपनी बड़ी बहन अस्मा के पीछे पीछे घूमती है. उस समय अस्मा उत्तर-पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाके के अपने स्कूल जाने के लिए तैयार होती है. आयशा अपनी बड़ी बहन से उसे भी अपने साथ स्कूल ले जाने की विनती करती है, लेकिन उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती. आयशा को उसी स्कूल में दाखिला देने से मना कर दिया गया, जहां उसकी बहन सातवीं कक्षा में पढ़ती है.

इनके पिता हुसैन अहमद रोहिंग्या शरणार्थी हैं और 2017 में अपने परिवार के साथ म्यांमार से भाग कर आए थे. वह आयशा को किसी तरह यह समझाने की कोशिश करते हैं कि स्कूल अधिकारियों ने उसका नामांकन क्यों अस्वीकार कर दिया है, लेकिन आयशा शायद ही उनकी बात समझने के लिए तैयार होती है.

हुसैन अहमद को यह देखकर दुख होता है कि आयशा लगातार उनसे स्कूल में नामांकन कराने की विनती करती है, लेकिन वे चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें लगातार उन परेशानियों की याद आती है जिनका वे सामना कर रहे हैं.

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निर्माण कार्य से जुड़ी परियोजनाओं में मजदूरी करने वाले अहमद ने कहा, "मैं अपनी बेटी का दाखिला करवाने के लिए एक सरकारी स्कूल से दूसरे सरकारी स्कूल तक दौड़ रहा हूं, लेकिन उसे कहीं भी दाखिला नहीं मिल पाया है. वे उसे शिक्षा से वंचित कर रहे हैं. मैं खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा हूं.”

अहमद ने बताया कि उन्होंने स्कूल में शरणार्थी बच्चों के नामांकन के लिए आवश्यक सभी दस्तावेज जमा कर दिए हैं. इनमें संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेज भी शामिल हैं. हालांकि, स्कूल प्रशासन ने दाखिले के लिए इन दस्तावेजों पर विचार करना बंद कर दिया है.”

शिक्षा हासिल करने में परेशानी

अहमद बताते हैं कि पिछले दो सालों से, "अधिकारियों ने आधार (बायोमेट्रिक पहचान पत्र) जैसे भारतीय दस्तावेजों की मांग शुरू कर दी है, जो कि शरणार्थी के तौर पर हमारे पास नहीं है.” उन्होंने यूएन शरणार्थी एजेंसी द्वारा जारी किए गए दस्तावेज का हवाला देते हुए कहा कि हमारा यूएनएचसीआर कार्ड किसी काम का नहीं है.

अहमद का अनुभव खजूरी खास में रहने वाले अन्य रोहिंग्या परिवारों जैसा ही है. उनके घर से कुछ मीटर की दूरी पर एक अन्य रोहिंग्या शरणार्थी सरवर कमाल रहते हैं. वह मोबाइल रिपेयरिंग का काम करते हैं. वह भी अपनी 10 वर्षीय बेटी के दाखिले के लिए इलाके के सरकारी स्कूलों के चक्कर लगा रहे हैं.

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कमाल ने डीडब्ल्यू से कहा, "मुझे बेहतर शिक्षा नहीं मिली, लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चों की किस्मत भी मेरे जैसी ही हो. मैं उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता हूं. मुझे चिंता है कि वे हमारे बच्चों के सपनों को चकनाचूर कर रहे हैं.”

म्यांमार में उत्पीड़न से बचने के बाद से करीब 40 रोहिंग्या परिवार इस कॉलोनी में रह रहे हैं. इनमें से ज्यादातर परिवार खजूरी खास के घनी आबादी वाले इलाके की संकरी गलियों में किराये के छोटे-छोटे कमरों में रहते हैं. भारत के सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के अनुसार, इस इलाके में पिछले दो सालों में 17 बच्चों को दाखिला देने से मना कर दिया गया है.

एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 40 हजार रोहिंग्या रहते हैं, जिनमें से 20 हजार यूएनएचसीआर में पंजीकृत हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो 2017 में म्यांमार से उस समय भागकर आए हैं, जब वहां की सेना ने पश्चिमी रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की थी. इस कार्रवाई को कई लोग नरसंहार भी बताते हैं.

भारत के पास शरणार्थियों पर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है और वह रोहिंग्या को ‘अवैध विदेशी' मानता है. भारत उन कुछ देशों में से एक है जिसने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.

भारत में बढ़ रही रोहिंग्या विरोधी भावनाएं

इस बीच, भारत में रोहिंग्या विरोधी भावनाएं भी बढ़ रही हैं. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को अक्सर रोहिंग्या विरोधी बयानबाजी से जोड़ा जाता है, लेकिन यह अकेली पार्टी नहीं है. दिल्ली में एक दशक से अधिक समय से सरकार चला रही आम आदमी पार्टी ने भी चुनावों से पहले अपना जनाधार बढ़ाने के लिए रोहिंग्या विरोधी बयानबाजी का इस्तेमाल किया है.

दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना ने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर देश की राजधानी में ‘बड़ी संख्या में अवैध रोहिंग्याओं' को बसाने का आरोप लगाया है.

रोहिंग्या मानवाधिकार पहल के संस्थापक सब्बर क्याव मिन रोहिंग्या मुद्दे के राजनीतिकरण से चिंतित हैं. मिन ने कहा कि रोहिंग्याओं को निशाना बनाकर की जा रही इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी, पहले से ही हाशिए पर पड़े समुदाय के डर को और बढ़ा रही है.

मिन ने डीडब्ल्यू से कहा, "शिक्षा पर यह प्रतिबंध राजनीति से प्रेरित है. अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेता अपनी राजनीति के लिए हमें दुश्मन के तौर पर पेश कर रहे हैं.”

आजादी प्रोजेक्ट और रिफ्यूजीज इंटरनेशनल की 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत भर में कम से कम 676 रोहिंग्या लोगों को इस समय इमिग्रेशन डिटेंशन सेंटर में रखा गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि उनमें से आधे महिलाएं और बच्चे हैं.

वैकल्पिक शिक्षा हासिल कर रहे बच्चे

खजूरी खास में, जो बच्चे नियमित स्कूल नहीं जा पा रहे हैं वे वैकल्पिक स्कूल में जाते हैं. यह एक छोटा मदरसा है जिसकी स्थापना रोहिंग्या शरणार्थी मोहम्मद सैयद ने की है.

स्थानीय मुस्लिम समुदाय की मदद से, किराये के एक छोटे से कमरे में यह मदरसा संचालित होता है. यहां सैयद कुरान पढ़ाते हैं और अन्य धार्मिक शिक्षा देते हैं. छात्र उर्दू भी सीखते हैं, जिससे उन्हें स्थानीय लोगों से बातचीत करने में मदद मिलती है.

सैयद ने कहा, "जब मुझे पता चला कि हमारे बच्चों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है, तो मैंने हस्तक्षेप किया. इन रोहिंग्या छात्रों के पास एक अच्छा जीवन जीने का सपना है, लेकिन उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है.”

वहीं दूसरी ओर, 7 साल की आयशा को दाखिला देने से इनकार करने वाले स्कूल के प्रिंसिपल विनोद कुमार शर्मा ने कहा कि उनके स्कूल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि अधिकारियों ने शरणार्थी बच्चों को दाखिला देने के नियम तय किए हैं.

शर्मा ने डीडब्ल्यू से कहा, "मैं छात्रों को दाखिला नहीं दे सकता. मेरे पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. अगर वे दाखिला लेना चाहते हैं, तो उनके परिवारों को शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों से संपर्क करना होगा और उनकी अनुमति लेनी होगी.”

कानूनी लड़ाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे रोहिंग्या

इस तरह की समस्या का सामना सिर्फ दिल्ली की इस कॉलोनी में रहने वाले शरणार्थियों को ही नहीं करना पड़ रहा है, बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा में रोहिंग्या बच्चों को सातवीं कक्षा के बाद स्कूलों में दाखिला नहीं दिया जा रहा है.

राज्य के नूह कैंप में समुदाय के नेता इमैनुएल मोहम्मद ने उन 90 छात्रों को मुफ्त ट्यूशन देना शुरू किया है जिन्हें स्कूलों में दाखिला नहीं दिया गया है. मोहम्मद ने डीडब्ल्यू से कहा, "माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. बेहतर भविष्य बनाने का एकमात्र साधन शिक्षा है.”

अक्टूबर 2024 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने रोहिंग्या बच्चों को स्थानीय सरकारी स्कूलों में दाखिला देने की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया. अदालत ने कहा कि चूंकि रोहिंग्या को भारत में कानूनी रूप से प्रवेश नहीं दिया गया है, इसलिए यह मामला भारत के गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है.

याचिका दायर करने वाले वकील अशोक अग्रवाल अदालत के फैसले से निराश हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय संविधान देश के हर बच्चे को शिक्षा के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है, चाहे उनकी नागरिकता की स्थिति कुछ भी हो.

अग्रवाल उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय जल्द ही मामले की सुनवाई के लिए तारीख तय करेगा.

खजूरी खास में अहमद के घर पर, अस्मा ने अपनी छोटी बहन आयशा को पढ़ाने की जिम्मेदारी ले ली है, क्योंकि आयशा अब उस दिन का इंतजार कर रही है जब स्कूल के दरवाजे आखिरकार उसके लिए भी खुलेंगे.