मिर्जा गालिब की 150वीं पुण्यतिथि पर विशेष: मैं गया वक्त नहीं कि फिर आ न सकूं…
मिर्जा गालिब (Photo Credits: File Image)

शायर कभी मरते नहीं, बस जिस्म से आजाद हो जाते हैं.. उनकी चंद पंक्तियां हमारे दिलों में हमेशा जगह बनाकर रखती हैं. मेहरबां होकर बुलाओ मुझे, चाहो जिस वक्त...मैं गया वक्त नहीं हूं, कि फिर आ भी न सकूं. मिर्जा गालिब  (Mirza Ghalib)  की उपरोक्त पंक्तियां कुछ ऐसा ही दर्शाती हैं. दिलों में उतर जानेवाले उनके चंद शब्द उन्हें हमेशा अपने करीब होने का अहसास कराते रहते हैं. शायद यही वजह है कि दैहिक अवसान के डेढ़ सौ साल बाद भी मरहूम शायर उनकी गैरमौजूदगी का अहसास ही नहीं होने देती.

उर्दू और फारसी के जादुई शायर मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के एक सैन्य परिवार के मिर्जा अब्दुला बेग के घर में हुआ था. यह वह समय था, जब हिंदुस्तान की सरजमीं से मुगलों की पकड़ कमजोर पड़ रही थीं और ब्रिटिश हुकूमत लगातार अपने पैर जमा रही थी. मिर्जा गालिब की मां इज्जत-उत-निसा बेगम थीं. गालिब तुर्की से हिंदुस्तान आये थे. मिर्जा गालिब की पृष्ठभूमि मूलतः तुर्की है. उनके दादा मिर्जा कोबान बेग खान अहमद शाह के शासनकाल में सन 1750 में समरकंद से भारत (दिल्ली) आये. दिल्ली में कुछ समय गुजारने के बाद काम की तलाश में वह पहले लाहौर और फिर जयपुर गये. अंततः आगरा में उन्होंने अपना स्थाई निवास बनाया. गालिब का मूल नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खान था. 1803 में गालिब जब मात्र पांच वर्ष के थे, उनके पिता अलवर में युद्ध करते हुए मारे गये. गालिब अपने नाना-नानी के संरक्षण में पले-बढ़े.

गालिब की शिक्षा के संदर्भ में विशेष दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कहा जाता है कि 11 वर्ष की आयु से ही गालिब के भीतर की शायरी फूटने लगी थी. 13 साल की उम्र में उनका निकाह इलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया. उनकी तीन पुत्रियां और दो पुत्र मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान थे. बाद में वह सपरिवार दिल्ली आकर बस गये.

बहादुर शाह जफर के दरबारी कवि मिर्जा गालिब की शायरी से प्रभावित होकर अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने उन्हें अपने दरबार में 'दरबारी कवि' के रूप में नियुक्त कर लिया था. दरबार में अपना फन दिखाने के साथ ही वह बादशाह बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की भी तालीम देते थे. वर्ष 1850 में उन्हें बादशाह ने 'दबीर-उल-मुल्क' की उपाधि से नवाजा. इसके अलावा उन्हें ‘दरबार-ए-मुल्क’ और फिर ‘नज्म-उद-दउल्ला’ की पदवी से भी सम्मानित किया गया. लेकिन कहा जाता है कि तमाम प्रतिभाओं के बावजूद मिर्जा गालिब का जीवन अथक संघर्षों में बीता.

मिर्जा असद उल्लाह बेग मूलतः उर्दू शायर थे. उन्होंने इश्क से लेकर रश्क तक प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावनाओं को अपनी शायरी के जरिए बखूबी बयां किया. साथ ही फारसी कविता के प्रवाह को हिंदुस्तानी जुबान में लोकप्रिय कराने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. एक जिंदादिल शायर होने के साथ-साथ उन्हें चिट्ठियां लिखने में भी निपुणता हासिल थी. अपने दोस्तों को लिखी उनकी अप्रकाशित चिट्ठियां आज धरोहर के रूप में सहेज कर रखी गयी हैं. उर्दू साहित्य की दुनिया में ग़ालिब के योगदान को उनके जीवित रहते हुए कभी शोहरत नहीं मिली, जितनी उनके दुनिया से कूच करने के बाद मिली. 15 फरवरी 1869 को पुरानी दिल्ली के शाहजहांनाबाद मे अपनी हवेली में इस महान शायर ने अंतिम सांसे ली. हजरत निजामुद्दीन दरगाह के करीब ही उन्हें खाक-ए-सिपुर्द किया गया. उनकी इसी हवेली को अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है.