मिर्जा गालिब की 151वीं पुण्य-तिथि पर विशेष: पूछते हैं वो कि 'गालिब’ कौन है? कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या!
मिर्जा गालिब (Photo Credits: File Image)

Mirza Ghalib 151th Death Anniversary: मात्र 10 साल की उम्र से ही बेमिसाल शायरी करनेवाले मिर्जा ने अपने शायराना सफर को ‘अशद’ उपनाम से शुरू किया, जिसे बाद में सारी दुनिया ने ‘मिर्जा गालिब’ (Mirza Ghalib) के नाम से पुकारा. मिर्जा गालिब 19 वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के प्रसिद्ध उर्दू और फारसी के शायर थे. आज जब सारा देश मिर्जा गालिब की 151वीं पुण्य-तिथि मना रहा है, आइये जानें इस अदीम-अजीम और अमर शायर मिर्जा गालिब के जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को...

व्यक्तिगत जीवन.

मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के पास काला महल में हुआ था. वे तुर्की वंश से थे. उनका असली नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खां था. घर के लोग उन्हें असद के नाम से पुकारते थे, लेकिन कालांतर में उन्होंने अपना नाम बदल कर गालिब रख लिया. गालिब का आशय विजेता होता है. पिता की मृत्यु के बाद बाद वे दिल्ली चले गये. 13 साल की उम्र में मिर्जा गालिब का निकाह 9 अगस्त 1810 में दिल्ली के प्रसिद्ध शायर इलाही बख्श खां मारुफ की बेटी उमराव बेगम से उनका निकाह हुआ. इसीलिए दिल्ली वाले उन्हें मिर्जा नौशा कहते हैं. उस समय वे मात्र 13 साल के थे. जानकारों के अनुसार उनके 7 बच्चे थे, लेकिन कोई भी जीवित नहीं रहा. इससे वे बहुत दुखी थे. मिर्जा गालिब की दो अहम कमजोरियां थीं, एक शराब और दूसरा जुआ, जो मरते दम तक उनके साथ थी. मिर्जा गालिब की शायरी में दर्द और इश्क का बखूबी चित्रण देखने को मिलता है. श्रोता उनकी शायरी ही नहीं शेर भी बहुत पसंद करते थे. उनकी एक गजल की कुछ पंक्तियां ‘हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाजें ए गुफ्तगू क्या है. 15 फरवरी 1869 को उनका निधन हो गया. मिर्जा गालिब अपने जीते जी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर सके, लेकिन मृत्यु के बाद उनकी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया. यह भी पढ़े-मिर्जा गालिब की 150वीं पुण्यतिथि पर विशेष: मैं गया वक्त नहीं कि फिर आ न सकूं…

शिक्षा एवं साहित्य.

मिर्जा गालिब शिक्षित थे या अशिक्षित, इस संदर्भ में ठोस प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन वे बेहद प्रतिभावान थे. 19 वर्ष की आयु में ही वह अनगिनत कविताएं लिख चुके थे. अपनी शुरुआती रचनाओं में उन्होंने गजलों के माध्यम से प्यार में उपजे दर्द को व्यक्त किया, साथ ही जीवन के असहाय दर्द और फ़लसफा के लिए उर्दू भाषा पर ज्यादा ध्यान दिया. इससे उनकी कविताएं सर्वोत्कृष्ट तो बनीं ही, बल्कि उर्दू की रोचकता भी बढ़ी, वरना उन दिनों में उर्दू दिखावटी भाषा तक ही सीमित थी. उन्होंने उर्दू का गजलों में बड़ी खूबसूरती से प्रयोग किया. सच कहा जाये तो आधुनिक उर्दू मिर्जा गालिब की आभारी है. मिर्जा गालिब ने अपने मित्रों को जो पत्र लिखे, उससे पता चलता है कि वे हास्यपूर्ण गद्य लिखने में भी दक्ष थे. यद्यपि उर्दू के साथ उनकी फारसी और तुर्की पर भी अच्छी पकड़ और समझ थी. उनकी अधिकांश गजलें अमर रहीं.

मिर्जा गालिब ने कहीं कभी भी नौकरी नहीं की.

मिर्जा गालिब सम्राट बहादुर शाह जफर द्वितीय के शाही दरबार के मुख्य दरबारियों में से एक थे. यहां उन्हें सम्राट के कवि और मुगल दरबार के इतिहासकार के रूप में नियुक्ति मिली थी. मिर्जा गालिब को मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की ओर से ‘नजम-उ-दौला’, ‘दबीर-उल-मुल्क’, ‘निजाम जंग’ इत्यादि की उपाधियां भी मिली थीं, लेकिन बहादुर शाह जफर के पतन के साथ ही मुगल सल्तनत धीरे-धीरे समाप्त हो गई, जिससे मिर्जा साहब की तकलीफें बढ़ती गईं. मिर्जा गालिब बहादुर शाह के राज्य के आश्रय पर ही रहते थे, जफर के राज्य से ही उनकी आजीविका चलती थी. वर्ष 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज हुकूमत ने मिर्जा साहब की पेंशन बंद कर दी. अपने आखिरी दिनों की तकलीफ मिर्जा साहब ने अपने शेरों में बयां की है. उन्होंने कहीं, कभी भी नौकरी नहीं की. उन्होंने अपनी एक रचना में इसका उल्लेख भी किया है कि...

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,

वरना हम भी आदमी थे काम के.