1990 के दशक में हजारों नेपाली-भाषी भूटानी लोगों को अपनी मातृभूमि से भागने पर मजबूर होना पड़ा था. दशकों बाद भी, उनमें से कई लोगों की जिंदगी अधर में लटकी हुई है. वे अपने देश वापस लौटना चाहते हैं.धनमाया मुक्तांगतमांग उन हजारों नेपाली भाषी भूटानी नागरिकों में से एक हैं जिन्हें 1990 के दशक में ‘एक राष्ट्र, एक लोग' की नीति की वजह से भूटान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था. यह नीति 1988 की जनगणना के बाद लागू की गई थी. जनगणना के बाद भूटान के दक्षिणी जिलों में नेपाली बहुसंख्यक लोगों के होने का पता चला था.
यह नीति लागू होने के बाद, नागरिकता साबित न कर पाने वालों को निष्कासित कर दिया गया था, नेपाली भाषा पर प्रतिबंध लगा दिया गया और प्रदर्शनकारियों को जेल में डाल दिया गया था. शरणार्थियों ने नेपाल में शरण ली, जहां संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूएनएचसीआर) ने सात अस्थायी शिविर स्थापित किए थे.
70 वर्षीय धनमाया मुक्तांगतमांग को 1990 के दशक में दक्षिण भूटान के सरपंग जिले से भागना पड़ा था. वह बांस से बनी एक पारंपरिक टोकरी ‘थुंचा' में अपने कपड़े और जरूरी कागजात लेकर भागी थीं. उन्होंने बताया कि उन्हें घने जंगलों से होकर गुजरना पड़ा और एक बड़ी नदी पार करनी पड़ी थी. वह रोते हुए बताती हैं, "अगर मैं उस नदी को पार करते समय मर जाती, तो बेहतर होता. इतनी पीड़ा नहीं होती.”
1991 और 1992 के बीच, मुक्तांगतमांग जैसे एक लाख से ज्यादा लोगों ने खतरनाक तरीके से भारत से नेपाल तक की यात्रा की. उन्हें लगा कि नेपाल के लोगों और उनकी भाषा एक होने की वजह से उन्हें नेपाली समाज स्वीकार कर लेगा.
हालांकि, उनमें से ज्यादातर लोग अब अन्य देशों में बस गए हैं, लेकिन 6,000 से ज्यादा लोग अभी भी नेपाल में शिविरों में किसी तरह जीवन-बसर कर रहे हैं.
बेहतर जिंदगी के लिए जारी है संघर्ष
मुक्तांगतमांग की झोपड़ी से थोड़ी दूर पर, पदम लाल पोखरेल और उनकी पत्नी अपनी दो बेटियों के साथ किसी तरह जीवन-बसर कर रहे हैं. इनकी बेटियों की उम्र 17 साल और 29 साल है, जिन्हें विशेष ध्यान देने की जरूरत है.
69 वर्षीय पोखरेल ने कहा कि उनके परिवार ने अपनी जातीयता के कारण अपनी नागरिकता खो दी. पूर्वोत्तर भारत में शरण पाने में विफल होने के बाद वे 2012 में बेलडांगी-II शिविर में पहुंचे.
भूटान के अपने दस्तावेजों को दिखाते हुए उन्होंने कहा, "शिविरों में रहना मुश्किल है. मेरी बेटियां विकलांग हैं और उन्हें बेहतर तरीके से इलाज कराने में मुश्किल होती है.”
हालांकि, नेपाल सरकार ने उनकी बेटियों के इलाज के लिए कुछ मदद दी है, लेकिन वे नेपाली नागरिक नहीं हैं. उनके शरणार्थी कार्ड की समय सीमा समाप्त हो गई है और उन्हें नया कार्ड नहीं मिला है. इस वजह से उन्हें सही तरह से इलाज करवाने में बहुत मुश्किल हो रही है.
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उन्होंने कहा, "नेपाल सरकार से मेरी एकमात्र मांग है कि हमें अपने देश भूटान लौटने और वहां रहने में मदद की जाए. इस तरह, मैं काम कर सकता हूं, अधिक पैसे कमा सकता हूं और अपनी बेटियों की भी मदद कर सकता हूं.”
इस दंपति का एक बेटा भी है जो नेपाल में एक निर्माण स्थल पर काम करता है. उनकी एक अन्य बेटी को संयुक्त राष्ट्र की मदद से अमेरिका में बसाया गया है.
अधर में लटकी जिंदगी
नेपाल के कानूनों की वजह से, अगर किसी नेपाली महिला की शादी किसी दूसरे देश के व्यक्ति से हुई है, तो उनके बच्चों को नेपाल की नागरिकता पाने में बहुत मुश्किल होती है. शिविर में रहने वाले युवा लोग शिक्षा या रोजगार के लिए दूसरे देशों में जाना चाहते हैं, लेकिन उनके पास पहचान के दस्तावेज नहीं होने के कारण ऐसा करना बहुत मुश्किल है.
17 वर्षीय अनीशा राय अपनी शिक्षा जारी रखने और शिक्षिका बनने के लिए विदेश जाना चाहती हैं. वह कहती हैं, "मेरे पास सिर्फ जन्म प्रमाणपत्र है, जिसमें लिखा है कि मैं नेपाल के शरणार्थी शिविर में पैदा हुई थी.”
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "मेरे पिता भूटानी शरणार्थी हैं और मेरी मां नेपाली हैं. इस वजह से मेरे लिए नेपाल की नागरिकता पाना मुश्किल है और मैं भूटान वापस नहीं जा सकती.”
लोग आस-पास के खेतों में काम करके या शिविरों के अंदर खाना बेचकर थोड़ा पैसा कमा लेते हैं, लेकिन शिविरों को चलाने के लिए बहुत सारा पैसा उन भूटानी लोगों से आता है जो अब दूसरे देशों में बस गए हैं. वे लोग शिविरों में रहने वाले लोगों की मदद करते हैं. वे सुनिश्चित करते हैं कि नेपाली सरकार के नियंत्रण वाले इन शिविरों में रहने वाले लोगों के लिए पानी, बिजली जैसी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों.
राय ने कहा, "अभी हम भूटान वापस नहीं जाना चाहते हैं. मैं उस देश से नाराज हूं. अब हमारी लड़ाई नेपाल में अपनी कानूनी पहचान वाले दस्तावेज हासिल करने की है.”
फिलहाल, नेपाल की सरकार जन्म प्रमाणपत्र और शरणार्थी पहचान पत्र जारी करने और देश के पूर्वी भाग में स्थित शरणार्थी शिविर चलाने के लिए जिम्मेदार है.
नेपाल के गृह मंत्रालय के अवर सचिव दिल कुमार तमांग ने डीडब्ल्यू को बताया, "हमें भूटानी शरणार्थियों के पहचान पत्रों को नवीनीकृत करने में समय लग रहा है, क्योंकि हाल ही में देश में शरणार्थी घोटाले से जुड़ा बड़ा मामला सामने आया था. इसलिए, हम सभी दस्तावेजों की अच्छी तरह से जांच कर रहे हैं.”
भूटानी शरणार्थियों को वापस लेने पर गतिरोध
नेपाल और भूटान ने 1951 के शरणार्थी सम्मेलन या इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. इन दोनों देशों की कोई औपचारिक शरणार्थी नीति भी नहीं है. मानवाधिकार से जुड़े मामलों को देखने वाली संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच' ने बताया कि नेपाल और भूटान के बीच शरणार्थियों को वापस भेजने के लिए उच्च स्तरीय बैठकें 2003 में हुई थीं, लेकिन इन बैठकों से कोई समाधान नहीं निकला.
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तमांग ने कहा कि भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक 6 दिसंबर को नेपाल के दौरे पर आए थे, लेकिन नेपाल की सरकार ने उनके साथ ‘कोई औपचारिक बातचीत' नहीं की, क्योंकि उनकी यात्रा ‘अनौपचारिक' थी.
नेशनल रिकॉन्सिलिएशन कमेटी (एनआरसी) भूटान के कोऑर्डिनेटर कृष्ण बीर तमग ने डीडब्ल्यू को बताया कि राजा जानते हैं कि वे भूटानी नागरिक हैं.
उन्होंने शिविर में एक चाय की दुकान पर पारंपरिक पोशाक पहने हुए कहा, "वे जानते हैं कि हम हमेशा अपने देश के प्रति वफादार और समर्पित रहे हैं. हमने भूटान की सीमाओं की रक्षा की है. फिर भी हमारे समुदाय को बिना किसी गलती के देश की भेदभावपूर्ण नीतियों का शिकार होना पड़ रहा है.”
उन्होंने आगे कहा, "हम बस इतना चाहते हैं कि राजा हमें माफी दें, ताकि हम अपने देश लौट सकें और नेपाली सरकार इस बातचीत को सुविधाजनक बनाने में अपनी भूमिका निभा सके.” वहीं, इस पूरे मसले पर भूटान की सरकार ने डीडब्ल्यू के सवालों पर किसी तरह का जवाब नहीं दिया है.
साल 2023 में, नेपाल ने भूटान के साथ बातचीत फिर से शुरू करने की योजना बनाई थी, ताकि शरणार्थियों को वापस भूटान भेजा जा सके. हालांकि, इसके बाद से इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है.
जारी है शरणार्थियों का संघर्ष
साल 2007 से 2016 के बीच, यूएनएचसीआर ने 1,13,500 से अधिक भूटानी शरणार्थियों को नेपाल के पूर्वी हिस्से में स्थित शिविरों से निकालकर आठ देशों में बसाने में मदद की. इन देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं.
एजेंसी ने डीडब्ल्यू को ईमेल के जरिए दिए गए बयान में बताया, "जिन भूटानी शरणार्थियों ने दूसरे देशों में जाने की इच्छा जताई थी उन्हें दूसरे देशों में बसाया गया. 2016 में शरणार्थियों को दूसरे देशों में बसाने का कार्यक्रम पूरा हो गया. कुछ भूटानी शरणार्थी अभी भी नेपाल में रह रहे हैं. इनमें से कुछ लोग भूटान वापस जाना चाहते हैं, तो कुछ लोग नेपाल में ही रहना चाहते हैं.
यूएनएचसीआर ने आगे बताया कि वह नेपाल सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है. वे चाहते हैं कि शेष बचे हुए भूटानी शरणार्थियों को स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ मिले. साथ ही, यूएनएचसीआर इन शरणार्थियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भी काम कर रही है.
भूटान में राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए वैश्विक अभियान के संयोजक राम कार्की ने जोर दिया कि विस्थापित हो चुके लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए भूटानी अधिकारियों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव डालना जरूरी है.
कार्की ने कहा, "भूटान के राजा को चिंता है कि बहुत से लोग काम की तलाश में विदेश जा रहे हैं. इसलिए, वे एक ऐसा कार्यक्रम शुरू करना चाहते हैं जिससे भूटान में ही लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर मिल सके और लोगों को विदेश न जाना पड़े.”
कार्की ने आगे कहा, "हालांकि, इसके साथ ही उन्होंने जातीयता के कारण इस आबादी के लगभग छठे हिस्से को देश से निकाल दिया था. ये लोग अब वापस लौटकर अपने देश के विकास में योगदान देना चाहते हैं.”
उन्होंने कहा, "हममें से जो लोग दूसरे देशों में बस गए हैं वे भी अच्छी नौकरी कर रहे हैं और अपने देश में धन भेज सकते हैं. इससे देश की आर्थिक हालत बेहतर हो सकती है, लेकिन भूटान ने हमसे हमारे अधिकार छीन लिए हैं और हमें पर्यटक के रूप में भी नहीं आने देते हैं.”