विदेश नीति को लेकर 2025 में भी बनी रहेंगी जर्मनी की चुनौतियां
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

जर्मनी में सरकार और जनता के बीच विदेश नीति को लेकर सोच में बड़ा फर्क है. यहां फरवरी, 2025 में आम चुनाव होंगे. सत्ता में कोई भी आए विदेश नीति की चुनौतियां बनी रहेंगी.ऐसा लग रहा है कि 2025 में जर्मन विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती अगले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से पैदा होगी. आशंका है कि ट्रंप चांसलर ओलाफ शॉल्त्स और हाल ही में बिखरे मध्य वामपंथी गठबंधन सरकार की प्राथमिकताओं का विरोध करेंगे.

बर्लिन के ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट (जीपीपीआई) के निदेशक थॉर्स्टेन बेनर ने डीडब्ल्यू से कहा, "अब यह बिल्कुल साफ है कि अपनी सुरक्षा तय करने के लिए अमेरिका पर निर्भर रहना अब और नहीं चलेगा. नया नियम ट्रंप हैं और बाइडेन का शासन चार साल पुरानी अटलांटिक पार नीतियों के आखिरी साल थे."

बेनर ने यह भी कहा कि इसके नतीजे में, जर्मनी को ऐसी दुनिया के लिए बिल्कुल तैयार रहना चाहिए, "जिसमें उसे यूरोप में अपनी सुरक्षा के लिए बहुत ज्यादा खर्च करना होगा, और यह तब करना होगा जब यूरोपीय महाद्वीप में जंग चल रही है."

ट्रंप की शुल्क वाली धमकी से यूरोप में भी बेचैनी

एक विकल्पः यूरोप पैसा दे, अमेरिका यूक्रेन को हथियार दे

अगले साल की विदेश नीति में सबसे अधिक जो बदलाव दिखेंगे वो यूक्रेन युद्ध को प्रभावित करने वाले तरीकों में होंगे. ट्रंप ने हाल ही में यह दोहराया कि वे "निश्चित रूप से" यूक्रेन को सहयोग में कटौती करेंगे और "तुरंत युद्ध विराम" की मांग रखेंगे.

जर्मनी के लिए इसके क्या मायने होंगे? विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉक ने नवंबर में बर्लिन फॉरेन पॉलिसी फोरम में देश की स्थिति को सामने रखा, "जर्मनी यूक्रेन के साथ खड़ा है, चाहे अमेरिका में चुनाव का कोई नतीजा आए. यूक्रेनियों के सिर पर कोई भी शांति वार्ता नहीं हो सकती." बेयरबॉक वास्तव में ट्रंप के उन संकेतों का जवाब दे रही थीं कि वो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ सीधे बातचीत के जरिए यूक्रेन में तुरंत युद्ध खत्म कर सकते हैं.

बेनर का कहना है कि इस स्थिति को टालने के लिए जर्मनी को, "ट्रंप प्रशासन के पास एक प्रस्ताव ले कर जाना चाहिए." एक विकल्प यह हो सकता है, "यूक्रेन को सैनिक साजोसामान की सप्लाई के लिए हम आपको पैसा देंगे." जाहिर है कि यूरोप के पास यूक्रेन को सप्लाई देने के लिए इन चीजों की उत्पादन क्षमता अमेरिका जैसी नहीं है, लेकिन वह इसके लिए पैसा दे सकता है.

बेनर का मानना है कि जर्मनी को यूक्रेन में खर्च बढ़ाना चाहिए, साथ ही सुरक्षा पर भी. हालांकि जर्मनी के बजट की सीमाएं देख कर यह साफ है कि ऐसा करने के लिए उसे नया कर्ज लेना होगा.

मध्य पूर्व में जर्मनी और यूरोप केवल "दर्शक" हैं

विदेश नीति की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है मध्यपूर्व. दिसंबर की शुरुआत में सीरिया का शासन राष्ट्रपति बशर अल-अशद को हटा करक विद्रोही गुटों ने अपने हाथ में ले लिया. इसकी वजह से वहां स्थिति काफी जटिल हो गई है. सीरिया के लोग असद का शासन खत्म होने पर जश्न मना रहे हैं. असद की सरकार को रूस और ईरान का समर्थन था. जर्मनी अब भी इस इंतजार में है कि विद्रोही गुट सीरिया में इस्लामिक शासन स्थापित करेंगे या कुछ और. इसकी वजह से यूरोप की ओर शरणार्थियों का नये सिरे से यूरोप की ओर पलायन हो सकता है.

यूरोप में क्यों बढ़ी सीरियाई शरणार्थियों की मुश्किल?

हालांकि सीरिया में उठापटक मध्यपूर्व की महज एक घटना है, भले ही यह सबसे ताजा है. 7 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद गाजा पट्टी में इस्राएल ने जो जवाबी हमला शुरू किया और फिर दक्षिणी लेबनान में हिज्बुल्लाह के साथ लड़ाई शुरू की, उसमें जर्मनी संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है.

एक तरफ तो उसने "रीजन ऑफ स्टेट" को आधार बना कर उसने स्राएल को हथियारों की सप्लाई दी है. दूसरी तरफ, इलाके में कई बार दौरे पर गईं बेयरबॉक ने युद्ध रोकने और फलिस्तीनी लोगों की वकालत की है.

काउंटर एक्ट्रीमिज्म प्रोजेक्ट (सीईपी) के मध्यपूर्व विशेषज्ञ हांस जाकोब शिंडलर का कहना है, "संतुलन की कार्रवाई संपूर्ण नहीं थी, लेकिन जिस तरह से अब तक यह किया गया उससे अलग तरीके से इसे कर पाना बहुत मुश्किल है."

पूरे यूरोपीय संघ ने मध्य पूर्व के विवादों में अपनी सक्रियता कई साल पहले घटना दी थी. हालांकि शिंडलर ने ध्यान दिलाया कि 7 अक्टूबर के बाद यूरोपीय संघ और जर्मनी की, "वार्ताओं में शायद ही कोई भूमिका है, जब फैसले हो रहे हों." उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, तो वास्तव में यह अमेरिका और इस्राएल की बातचीत होती है और ज्यादातर मौकों पर यूरोपीय दर्शक के रूप में नजर आते हैं, जो अलग रह कर प्रतिक्रिया देते हैं."

जब ट्रंप राष्ट्रपति हों तो सवाल होगा, "विवादों को खत्म करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी इस्राएल समर्थक नीतियों को वह कितना बदलेंगे."

शिंडलर का मानना है, "जर्मनी और यूरोप ऐसी को मजबूत स्थिति विकसित नहीं कर पाएंगे जो विवाद को प्रभावित कर सके." उन्हें यकीन है कि इस मामले में सबसे अच्छा यही होगा कि गाजा पट्टी और दक्षिणी लेबनान में भविष्य के पुनर्निर्माण में यूरोप सक्रिय हो कर दोबारा अपनी स्थिति मजबूत कर सके.

जर्मनी के उपदेशों पर चीन का जवाब

तीन साल से बेयरबॉक जर्मन विदेश नीति का प्राथमिक चेहरा हैं और उन्होंने कभी कभी मानवाधिकार की हिमायती बनने की कोशिश की है. उन्होंने चीन जैसे प्रमुख कारोबारी साझीदारों के साथ मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे पर खुलेआम चर्चा की है.

हालांकि 2023 में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री किन गांग ने इसके जवाब में कहा था, "चीन को सबसे कम जिस चीज की जरूरत है वह है पश्चिमी देश से शिक्षक."

थॉर्स्टेन बेनर का कहना है कि मूल्य आधारित विदेश नीतियों को लागू करना कठिन होता है. उन्होंने कहा, "निश्चित रूप से महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखना अच्छी बात है ताकि बेहद जटिल वास्तविक राजनीतिक समझौतों के आगे आसानी से झुकने से बचा जा सके. हालांकि मेरा मानना है कि मिस बेयरबॉक भी खुद को, भविष्य में किसी जर्मन गठबंधन में, मूल्य आधारित नीतियों को इसी तरह से आगे ले जाने की अब इच्छा नहीं रखतीं."

जर्मनी नहीं चाहता 'प्रमुख भूमिका'

ओपिनियन पोल से पता चल रहा है कि जर्मनी में अगली सरकार का नेतृत्व क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन (सीडीयू) और उसकी बवेरियाई सहयोगी पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) के चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स के हाथ में हो सकता है. जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (डीजीएपी) के हेनिंग होफ का मानना है कि मैर्त्स के नेतृत्व वाली विदेश नीति वास्तव में जर्मनी की मौजूदा विदेश नीति से अलग नहीं होगी. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "जर्मनी की विदेश नीति को लेकर एक आम सहमति है. यह संकट के दौर में स्थिरता का एक कारक है." यह आम सहमति इस बात पर है कि देश को विदेश और सुरक्षा नीतियों के मामले में ज्यादा सक्रिय होना चाहिए.

हालांकि जर्मन आबादी इस मामले में पूरी तरह से सरकारों के साथ नहीं है. अमेरिका में चुनाव के बाद कोएर्बन फाउंडेशन के कराए एक सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 73 फीसदी लोगों ने कहा कि जर्मनी को यूरोपीय सुरक्षा में ज्यादा निवेश करना चाहिए हालांकि 58 फीसदी लोग अंतरराष्ट्रीय मंच से अमेरिका के हटने की स्थिति में पश्चिम देशों में जर्मनी के प्रमुख भूमिका निभाने के खिलाफ थे.,

जहां तक नाटो का सवाल है तो मध्य नवंबर में ट्रंप के चुनाव के बाद यूगोव के कराए एक सर्वेक्षण में पता चला कि केवल 33 फीसदी जर्मन महसूस करते हैं कि जर्मनी को नाटो के नेतृत्व में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए. 41 फीसदी लोग जर्मनी को वर्तमान की तरह ही मजबूत भूमिका चाहते हैं जबकि 16 फीसदी लोग इससे कमजोर भूमिका चाहते हैं.

ऐसा लग रहा है कि नई सरकार का नेतृत्व चाहे कोई करे, घरेलू मोर्चे पर उसे इस चुनौती का सामना करना होगा. यह चुनौती है जर्मन लोगों को ये समझाना कि देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी लेनी चाहिए.