Shradh 2019: 14 सितंबर 2019 से पितृपक्ष प्रारंभ होने के साथ ही गया (बिहार) स्थित फल्गु नदी के तट पर हजारों श्रद्धालु अपने पितरों की शांति के लिए पिंडदान एवं तर्पण कार्य शुरू कर देंगे. भाद्रपद पूर्णिमा के दिन से शुरू होने वाली यह परंपरा हजारों सालों से चली आ रही है. यूं तो वर्तमान में पिण्डदान एवं तर्पण आदि गया के अलावा हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर एवं बद्रीनाथ आदि जगहों पर भी सम्पन्न करवाये हैं, लेकिन पौराणिक कथाओं में पिण्डदान एवं तर्पण आदि के लिए गयाजी को सर्वश्रेष्ठ एवं प्रभावशाली बताया गया है. आइये जानें गया जी का महात्म्य, पिण्डदान एवं तर्पण की प्रक्रिया.
श्राद्ध से मिलता है प्रत्यक्ष मोक्ष:
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को ‘श्राद्ध’ कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहते हैं.सनातन धर्म और वैदिक मान्यताओं में पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग माना जाता है. पिण्डदान अथवा तर्पण के लिए बिहार स्थित गया जी को बेहतर बताया जाता है. श्राद्ध पखवारा के प्रारंभ होते ही गया के फल्गु तट पर पिण्डदान करने वालों का तांता लगना शुरू हो जाता है. कहते हैं क् जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए यहीं पर गया में ही पिंडदान किया था. श्राद्ध पक्ष का महात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है. दक्षिण भारत एवं महाराष्ट्र के विभिन्न अंचलों में भी इसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है.
गया में ही क्यों होता है पिण्डदान एवं तर्पण:
पौराणिक कथाओं में बिहार स्थित गया को विष्णु का नगर बताया गया है. इसे मोक्ष की भूमि भी कहा जाता है. विष्णु पुराण में उल्लेखित है गया में पिण्डदान करने से पूर्वजों को सहजता से मोक्ष मिल जाता है. स्थानीय पुजारियों का कहना है कि पितृ देवता के रूप में यहां स्वयं विष्णु वास करते हैं. इसीलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहा जाता है. फल्गु तट के एक पुरोहित के अनुसार फल्गु नदी तट पर पिण्डदान करवाए बिना पिण्डदान की प्रक्रिया पूरी हो ही नहीं सकती. स्थानीयों के अनुसार पिण्डदान की यह प्रक्रिया करीब स्थित पुनपुन नदी से शुरू हो जाती है. एक पौराणिक कथा के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर नामक राक्षस ने कठोर व्रत कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर वर मांगा कि उसका शरीर देवताओं की तरह पावन हो जाए. यह वरदान हासिल होने के पश्चात स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी. सब कुछ प्राकृतिक नियमों के विपरीत होने लगा. लोग भयमुक्त होकर पापाचार में लिप्त होने लगे. पापमुक्त होने के लिए वे गयासुर का दर्शन करने आने लगे. प्रकृति के इस तरह दुरुपयोग को रोकने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए कुछ पवित्र स्थल की मांग की. गयासुर ने देवताओं को अपना शरीर दान कर दिया. यज्ञस्थल पर जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर 5 कोस तक फैल गया. मान्यता है कि गयासुर का यही 5 कोस का शरीर गया के नाम से मशहूर हो गया. गयासुर के मन में फिर भी लोगों को उनके पापों से मुक्ति दिलाने की चाहत बनी रही. उसने ब्रह्मा की तपस्या कर पुनः उनसे वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने (मुक्ति) वाला बना रहे. लोग यहां पर किसी की मुक्ति की इच्छा से पिंडदान करें और उन्हें अवश्य मुक्ति मिले.
पिण्डदान की अलग-अलग विधियां:
महाभारत में वर्णित है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्ध में श्रीहरि का दर्शन करता है, वह पितरों के सारे ऋणों से मुक्त हो जाता है. फल्गु तट पर श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज बस यही तीन मुख्य कार्य होते हैं. पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि विधान अलग-अलग है. फल्गु तट पर परंपरानुसार पिण्डदान करने वाले श्रद्धालु एक, तीन, सात, पंद्रह और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं.
पितरों के लिए गया ही जाना पसंद करते हैं:
स्थानीयों के अनुसार एक समय गयाजी में अलग-अलग नाम की 360 से ज्यादा वेदियां मौजूद थीं, जहां देश ही नहीं विदेशों से भी लोग आकर पिंडदान करवाते थे. लेकिन ज्यों-ज्यों गया के विकल्प के रूप में हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर एवं बद्रीनाथ के नाम उभरे, लोगों ने वहां भी जाना शुरू कर दिया. वर्तमान में कहा जाता है कि मात्र 48 वेदियां ही बची हुई हैं. इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं. यहां की मुख्य वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी तट और अक्षयवट पर पिंडदान करना सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. इसके बावजूद आज भी लोग अपने पितरों को पिण्डदान अथवा तर्पण के लिए गया जी ही आना पसंद करते हैं.