पूरी दुनिया में आज महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ने और उनके उत्थान और अधिकारों की बात करते हुए विश्व महिला दिवस मनाया जाता है, लेकिन भारत में महिलाएं सैकड़ों साल पहले से अलग-अलग क्षेत्र में नेतृत्व करती आ रही हैं. आज हम जिस भारत में स्वतंत्रता के साथ सांस ले रहे हैं वह हमें तमाम वीरों की आहूतियों के बाद मिली है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को सफल बनाने में महिलाओं का भी बड़ा हाथ था. देश की आजादी में अनगिनत महिलाओं ने अलग-अलग रूपों में देश में हुए आंदोलनों का नेतृत्व किया. महिला दिवस पर आज कुछ उन्हीं महिलाओं को याद करते हैं…
रानी चेनम्मा
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले रानी चेनम्मा ने भी युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे. रानी चेन्नम्मा का दक्षिण भारत के कर्नाटक में वही स्थान है जो स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है. सन् 1824 में उन्होंने हड़प नीति के विरुद्ध अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था. हालांकि उन्हें युद्ध में सफलता नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया. अंग्रेजों के कैद में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया. भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम लिया जाता है.
मूलमती
मूलमती एक असाधारण महिला और एक साहसी मां थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में अपने बेटे का समर्थन किया और वह अपने बेटे को फांसी पर चढ़ने से पहले उनसे मिलने के लिए गोरखपुर की जेल में गई थीं. हम बात कर रहे हैं राम प्रसाद बिसमिल की मां मूलमती की. उन्होंने अपने बेटे से कहा कि मुझे तुम्हारे जैसे बेटे पर गर्व है. आत्मकथा में रामप्रसाद लिखते हैं, “यदि मुझे ऐसी माता नहीं मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों के भांति संसार चक्र में फंस कर जीवन निर्वाह करता.” मूलमती की भले ही अकेले उनके नाम से पहचान न हुई हो, लेकिन मूलमती क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की मां के रूप में स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में एक प्रमुख स्थान प्राप्त करने में कामयाब हुई हैं. यह भी पढ़ें :
मातंगिनी हाजरा
मातंगिनी हाजरा भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली बंगाल की वीरांगनाओं में से थीं. मातंगिनी हाजरा विधवा स्त्री अवश्य थीं, लेकिन अवसर आने पर उन्होंने अदम्य शौर्य और साहस का परिचय दिया था. 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के तहत ही सशस्त्र अंग्रेजी सेना ने आंदोलनकारियों को रुकने के लिए कहा. मातंगिनी हाजरा ने साहस का परिचय देते हुए राष्ट्रीय ध्वज को अपने हाथों में ले लिया और जुलूस में सबसे आगे आ गईं. इसी समय उन पर गोलियां दागी गईं और इस वीरांगना ने देश के लिए अपनी कुर्बानी दी.
तारा रानी श्रीवास्तव
तारा रानी श्रीवास्तव का जन्म बिहार की राजधानी पटना के नजदीक सारण जिले में हुआ था. उनके बारे में कहा जाता है कि तारा रानी एक ऐसी स्वतंत्रता सेनानी थीं जिन्होंने अपने देश के ध्वज को पति की जान से भी ज्यादा सम्मान दिया. जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. उस समय उनके पति फूलेंदु बाबू भी सिवान थाने की तरफ चल दिए. उनके साथ पूरा जनसैलाब था, तारारानी इन सभी का नेतृत्व कर रहीं थीं. 12 अगस्त 1942 का दिन उनके लिए सबसे दर्दनाक दिन था. जनसैलाब पर पुलिस ने लाठियां और गोलियां चला दी, इस बीच तारा रानी के पति फुलेन्दु बाबू को पुलिस की गोली लग गई. लेकिन अपने पति के अंतिम क्षणों में उनके साथ रहने के बजाय उन्होंने अपने क्षेत्र में ब्रिटिश शासन का विरोध प्रदर्शन करते हुए सीवान पुलिस स्टेशन की छत पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराया.
कनकलता बरुआ
कनकलता बरुआ भारत की स्वतन्त्रता सेनानी थीं, जिनको अंग्रेजों ने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गोली मार दी. उन्हें बीरबाला भी कहते हैं. वे असम की निवासी थीं. दरअसल एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया था. तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर गोलियां दागी गईं और यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई.
अरुणा आसफ अली
अरुणा आसफ अली का नाम भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में विशेष रूप से प्रसिद्ध है. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली क्रांतिकारी, जुझारू नेता श्रीमती अरुणा आसफ अली का नाम इतिहास में दर्ज है. अरुणा आसफ अली ने सन 1942 ई. के ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता. देश को आजाद कराने के लिए अरुणा निरंतर वर्षों अंग्रेजों से संघर्ष करती रही थीं. अरुणा आसफ अली सन् 1958 ई. में 'दिल्ली नगर निगम' की प्रथम महापौर चुनी गईं.