कथक और भरतनाट्यम समेत अन्य शास्त्रीय नृत्यों को दुनिया भर में पहचान दिलाने वालों में पुरुषों का भी बड़ा योगदान है. इसके बावजूद पुरुष नर्तकों को भारतीय समाज उपेक्षा की नजर से क्यों देखता है."जब हम बाहर निकलते, तो लोग हमें देखकर कहते थे.. देखो नचनिया जा रहा है. यह सुनकर हमें बहुत दुख होता था." ऐसा कहते हुए ज्ञानेंद्र दत्त बाजपेयी की आंखें भर गईं. ज्ञानेंद्र भरतनाट्यम के नर्तक और लखनऊ के भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय के डीन हैं.
यह दर्द सिर्फ ज्ञानेंद्र का नहीं, बल्कि शास्त्रीय नृत्य सिखाने वाले कई पुरुषों का है. लैंगिक भूमिकाओं की पारंपरिक मान्यताओं से हटकर खुद को साबित करने के लिए सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, कई मामलों में पुरुषों को भी समाज के ताने झेलने पड़ते हैं. भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी समेत कई पारंपरिक शास्त्रीय नृत्य सिखाने वाले पुरुष इसमें शामिल हैं.
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घर पर झूठ बोलना पड़ा
भातखंडे संस्कृति विश्वविद्यालय के 14वें दीक्षांत समारोह में भरतनाट्यम के मास्टर्स पाठ्यक्रम में शिवम अवस्थी को 10 गोल्ड मेडल मिले. विश्वविद्यालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है. शिवम को कई साल के संघर्ष के बाद यह उपलब्धि हासिल हुई है. वह बताते हैं, "मैं उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले से हूं. यह काफी छोटा जिला है. मैं एक रूढ़िवादी परिवार से हूं, जहां लड़कियों को भी नाचने-गाने की इजाजत नहीं होती."
बचपन में दूरदर्शन पर भरतनाट्यम और कथक नृत्य देखकर खुश होने वाले शिवम को बड़े होने पर पता चला कि इसमें डिग्री भी मिल सकती है. उन्होंने मौका नहीं गंवाया. घर पर संगीत सीखने की बात कहकर भातखंडे में प्रवेश लिया और भरतनाट्यम सीखना शुरू किया. इसी विधा में बैचलर्स और मास्टर्स भी किया. शिवम कहते हैं, "दीक्षांत समारोह में जब गोल्ड मेडल के लिए मेरा नाम लिया गया, तब मेरे घरवालों को पता चला कि मैंने संगीत नहीं बल्कि भरतनाट्यम सीखा है. वे हैरान थे."
अब भी जारी है संघर्ष
कथक नर्तक राघवेंद्र प्रताप सिंह बीते 22 वर्षों से इस नृत्यकला के साधक हैं. वह बताते हैं, "मैं एक रूढ़िवादी परिवार से आता हूं. ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे परिवार में पुरुषों के लिए क्या माहौल होगा. घर-परिवार, समाज, मैंने सब से लड़कर, छुप-छुपाकर कथक सीखा."
राघवेंद्र वर्तमान में वनस्थली विद्यापीठ यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे हैं. वह बताते हैं, "भातखंडे के गुरुओं का सहयोग मिला, तो संघर्ष भी आसान लगा. हालांकि इस दौरान शारीरिक, आर्थिक और मानसिक परेशानियां और लोगों के ताने भी साथ रहे क्योंकि कहीं-न-कहीं हमारे सामने परिवार की जिम्मेदारी उठाने का भी दबाव रहता है." कई वर्षों की मेहनत के बाद जब राघवेंद्र को प्रसिद्धि मिलने लगी, तब जाकर घरवालों की ओर से उन्हें थोड़ा साथ मिलने लगा है.
शिवम अवस्थी के गुरु और भातखंडे के डीन ज्ञानेंद्र दत्त बाजपेयी को भी इस संघर्ष का सामना करना पड़ा है. वह कहते हैं कि भरतनाट्यम में 10 गोल्ड मेडल मिलना शिवम से ज्यादा उनके लिए उपलब्धि है. ज्ञानेंद्र दत्त बताते हैं, "पुरुषों का भरतनाट्यम और कथक जैसे नृत्य सीखना पारंपरिक समाज के एक हिस्से के लिए अभी भी कल्पना से परे है. जब मैंने भरतनाट्यम सीखा था, उस समय मेरे परिवार में हाहाकार मच गया. यहां तक कि कई वर्षों तक मुझे घर और बाहर दोनों जगह जलालत सहनी पड़ी. मैं फिर भी डटा रहा." ज्ञानेंद्र को भरोसा है कि उनके और शिवम जैसे लोग जब सामने आएंगे और अपना संघर्ष जारी रखेंगे, तो समाज को भी बदलना पड़ेगा.
समाज में लैंगिक भूमिकाओं को लेकर कायम रूढ़ियां पुरानी हैं. शास्त्रीय नृत्य की कोमल अभिव्यक्तियों को "फेमिनिन" मानकर इसे सिर्फ महिलाओं से जोड़ने की प्रवृत्ति रही है. पुरुषों का घुंघरु पहनना, खुद को सजाना और भाव-भंगिमाओं के साथ नृत्य करना पुरुष और महिला से अपेक्षित बर्ताव के मुताबिक नहीं माना जाता. इसके बावजूद शास्त्रीय नृत्यों में पुरुषों का आना कोई नई बात है. ज्ञानेंद्र बताते हैं, "कथक में पंडित बिरजू महाराज, अच्छन महाराज, शंभू महाराज, ओडिसी के केलुचरण महापात्रा, कुचिपुड़ी में वेम्पति चिन्ना सत्यम समेत हर नृत्य से पुरुष जुड़े हैं. फिर भी आज भी समाज पुरुष नर्तकों को खुले मन से नहीं अपनाता. उनके पुरुष होने पर संदेह किया जाता है. माना जाता है कि उनमें "पर्याप्त मर्दानगी" नहीं है, वे "स्त्रैण" हैं. यह सही नहीं है."
कथक सम्राट बिरजू महाराज नहीं रहे
लड़कियां भी संघर्षरत
समाज की पाबंदियों का ज्यादा बोझ लड़कियों और महिलाओं पर ज्यादा है. इन्हीं में से एक नेहा काजी हैं, जिन्होंने भातखंडे के इतिहास में पहली बार स्लाइड गिटार में दो गोल्ड मेडल अपने नाम किए हैं. नेहा बताती हैं, "हम लड़कियों को अपने सपने पूरे करने के लिए कई चीजें एक साथ करते हुए आगे बढ़ना होता है. घर भी संभालना है, समाज के साथ चलना है और अपना सपना भी पूरा करना है. मैं एक रूढ़िवादी समाज से आती हूं, जहां गिटार जैसे संगीतवाद्यों को अच्छा नहीं माना जाता है. इसके बावजूद मैं अपना सपना पूरा कर रही हूं."
नेहा की मां का देहांत हो चुका है और पिता को हाल ही में पैरालिसिस का अटैक पड़ा है. परिवार से मिले सहयोग पर वह बताती हैं, "गिटार की क्लास के लिए अब्बा ही घर से विश्वविद्यालय तक छोड़ने और लेने आते थे. वह मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं." हालांकि, बीमारी के कारण पिता का दीक्षांत समारोह में शामिल न हो पाने का मलाल नेहा के मन में जरूर है.
नेहा के साथ उनके गुरु और गिटार वादक अभिजीत रॉय चौधरी को भी भातखंडे में स्लाइड गिटार का विभाग शुरू करने में संघर्ष करना पड़ा. वह बताते हैं, "2010 में यह विभाग बंद हो चुका था. सात वर्ष बाद मैंने इसे दोबारा शुरू किया. नेहा की उपलब्धि मेरे लिए एक और हासिल है क्योंकि गिटार जैसे विभाग को शुरू करना और इसमें नेहा का पहली बार एक नहीं, दो-दो गोल्ड मेडल लेकर आना मेरे सपने के सच होने जैसा है." अभिजीत के अनुसार, इस विभाग में इक्का-दुक्का बच्चे ही प्रवेश लेते हैं. वह कहते हैं, "ज्यादातर विद्यार्थी फिल्मों में बजने वाले अकूस्टिक गिटार को सीखने आते हैं, जबकि यह स्लाइड गिटार है. यह बेहतर है, लेकिन उन्हें इस बात की समझ नहीं होती."