राम प्रसाद बिस्मिल जब मात्र 11 वर्ष के थे, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे. छोटी-सी उम्र में क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेते हुए रामप्रसाद बिस्मिल महज क्रांतिकारी ही नहीं बल्कि बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी बन चुके थे. वह शायर थे, लेखक थे, इतिहासकार थे और साहित्यकार भी थे. लेखन या कविकार के तौर पर वे ‘बिस्मिल’ के अलावा दो और उपनाम ‘राम’ और ‘अज्ञात’ से भी रचनाएं लिखते थे, जिसकी वजह से ब्रिटिशियंस अकसर उनकी पहचान करने में गल्तियां कर जाते थे. देश आज महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की 122वीं वर्षगांठ मना रहा है.
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म आज के ही दिन यानि 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था. उनके पिता मुरलीधर और माता का नाम मूलारानी था. बचपन से ही राम प्रसाद बिस्मिल आर्यसमाज से प्रेरित होने के बावजूद हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक थे. बिस्मिल ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर काफी काम किया है, बतौर साहित्यकार और कवि उन्होंने इस विषय पर काफी कुछ लिखा. उन्होंने अशफाकउल्ला खान के संदर्भ में लिखा था कि, अगर अशफाक उल्ला खान कट्टर मुसलमान होने के बावजूद आर्यसमाजी रामप्रसाद के क्रान्तिकारी दल का दायां हाथ बन सकते हैं, तो क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू मुसलमान अपने निजी छोटे-मोटे फायदों को भूलकर एक क्यों नहीं हो सकते?
कैसे बने क्रांतिकारी बिस्मिल
रामप्रसाद बिस्मिल’ के क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत 1913 में हुई थी. जब विख्यात आर्य समाज और वैदिक धर्म के प्रमुख भाई परमानंद को ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर गदर षड्यंत्र मामले में फांसी की सजा सुनाई थी. परमानंद उन्हीं दिनों लाला हरदयाल की गदर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाते के बाद कैलीफोर्निया से स्वदेश लौटे थे. इस क्रूर सजा से आवेशित होकर बिस्मिल ने ‘मेरा जन्म’ शीर्षक से कविता तो लिखी ही, साथ ही ब्रिटिश साम्राज्य के समूल विनाश की शपथ भी खाई थी.
मैनपुरी षड़यंत्र
रामप्रसाद बिस्मिल अपने क्रांतिकारियों के साथ अकसर ब्रिटिश हूकमत के खिलाफ अकसर बड़े वारदात करने की कोशिश करते थे. उनके नाम ऐसे कई कांड हैं, जिसने ब्रिटिश हूकूमत की चूलें हिला दी. ध्यान रहे कि रामप्रसाद बिस्मिल मातृवेदी संस्था से भी संबद्ध थे. इस सामाजिक संस्था के साथ कार्य करते हुए उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए काफी हथियार एकत्रित कर लिया था और ये सारे हथियार उन्होंने अपनी पुस्तकों की बिक्री से प्राप्त रुपयों से ही खरीदे थे.
लेकिन इस बात की भनक अंग्रेजी सेना को लग गई. बताया जाता है कि जब गुप्त तरीकों से ब्रिटिश हुकूमत ने बिस्मिल के हथियारों के अड्डे पर छापा मारकर भारी तादाद में हथियार बरामद किया तो वे यह देखकर हैरान रह गये थे कि इतने हथियार अंग्रेजों को उत्तर प्रदेश से खदेड़ने लिए काफी थे. इस घटना को ‘मैनपुरी षड़यंत्र’ के नाम से भी जाना जाता है. गौरतलब है कि इस कांड को अंजाम देने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया.
काकोरी कांड और अंग्रेजों में हड़कंप
नवयुवकों की क्रांतिकारी पार्टी का सपना साकार करने के क्रम में बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर आरंभ किया. अब प्रश्न यह था कि इस आंदोलन के लिए शस्त्र खरीदने का धन कहां से लाया जाए. अंततः 9 अगस्त 1925 को बिस्मिल ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ लखनऊ के निकट काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया. मगर कुछ ही दिनों के पश्चात 26 सितंबर, 1925 को ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें लखनऊ की सेंट्रल जेल की 11 नंबर की बैरक में रखा गया. जो क्रांतिकारियों को कड़ी सजा देने के लिए कुख्यात था. अंग्रेजी हुकूमत ने कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बड़े नाटकीय तरीके से काकोरी काण्ड में शामिल अशफाक उल्लाह खान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह के साथ बिस्मिल को भी फांसी की सजा सुनाई. 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर की जेल में फांसी पर लटका दिया था. कहा जाता है कि फांसी के तख्त पर लटकते समय हंसते हुए बिस्मिल की जुबान बिस्मल अजीमाबादी का लिखा यह शेर था,
'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...'