कोरोना वायरस की जंग में भारत दुनिया भर के देशों से बेहतर कर रहा है. देश में अब तक 9 लाख से ज्यादा टेस्ट किए जा चुके हैं. इसके साथ ही भारत टेस्टिंग में शिर्ष 10 देश में शामिल है. लेकिन चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं. इस बात को सरकार और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान (आईसीएमआर) भी अच्छी तरह जानती है. वायरस के मामले बढ़ रहे हैं ऐसे में कम्युनिटी स्प्रेड होने की चर्चा हो रही है, इसे फैलने से रोकने के बारे में जानकारी देते हुए आईसीएमआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. तरुण भटनागर ने बताया कि इसमें दो प्रकार के टेस्ट होते हैं- आरटीपीसीआर टेस्ट, जो यह बता सकता है कि किसी व्यक्ति को कोविड-19 का संक्रमण है या नहीं.
वहीं दूसरा पूल सैंपलिंग जिससे पॉप्युलेशन लेवल पर यह संक्रमण कितना फैल रहा है या खतरे को समय से पहले ही भांप लिया जाएगा. यह भी पढ़े: कोरोना से जंग: बिहार में डोर टू डोर अभियान का हो रहा है फायदा, कई जिलों में हुई अधिक COVID-19 से संक्रमितों की पहचान
पूल सैंपलिंग कैसे काम करता है
डॉ भटनागर बताते हैं कि पूल सैंपलिंग में एंटीबॉडी टेस्ट मदद कर सकता है.दरअसल जब वायरस अटैक करता है, तो शरीर अपनी तरफ से एंटीबॉडी प्रोड्यूस करता है.किसी इलाके में सभी लोगों का अगर एंटीबॉडी टेस्ट करें तो हम जान सकते हैं कि कितने लोग यह एंटीबॉडी प्रोड्यूस कर रहे हैं। यानी यह पता चल सकता है कि कितने लोग वायरस से संक्रमित हैं लेकिन लक्षण नहीं, और कितने लोग संक्रमण से बीमार हैं। इस पूरी प्रक्रिया में पता चल सकता है कि किसी इलाके में यह संक्रमण कितना फैला है.
देश में अब तक 9 लाख से ज्यादा टेस्ट वहीं टेस्टिंग के बारे में जानकारी देते हुए डॉ भटनागर बताते हैं कि आज की तारीख में भारत में 9 लाख से ज्यादा टेस्ट हो चुके हैं और टेस्टिंग के मामले में भारत विश्व में शीर्ष 10 देशों में है। अगर प्रतिदिन टेस्ट को देखें तो शुरू में एक हजार तक टेस्ट कर रहे थे. अब टेस्टिंग बढ़ कर 50 हजार प्रति दिन के ऊपर हो गई है। ये सभी आईसीएमआर की निगरानी में हो रहा है. इसके साथ ही उन्होंने बताया कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान की 300 से ज्यादा लैब कोविड-19 की टेस्टिंग कर रही हैं। इसके अलावा 100 के करीब प्राइवेट लैब हैं और लैब बढ़ रहे हैं।
कई प्रदेशों में कराया जा रहा सर्वेक्षण
हांलाकि भारत की आबादी के लिहाज से इतनी जल्दी टेस्टिंग किट से पूरे देश में टेस्ट करना संभव नहीं है इसलिए कुछ इलाकों में सर्वेक्षण कराए जा रहे हैं। कई प्रदेशों में घर-घर जाकर लोगों से खांसी, जुकाम, हलके बुखार आदि होने की जानकारी जुटाई जा रही है, कि कहीं किसी को कोरोना के लक्षण तो नहीं है। इसको सिंड्रोमिक संर्विलांस कहते हैं। यानी बिना टेस्ट किए ही पता लगाना कि क्षेत्र में संक्रमण है या नहीं। इसमें यह पता लगाया जाता है कि कहीं अगर एक या दो कोरोना के मरीज हैं तो आस-पास रहने वाले लोगों में लक्षण तो नहीं बढ़ रहे हैं। भारत की आबादी इतनी अधिक है कि एक बार में सभी के टेस्ट करना संभव नहीं है। सर्वेक्षण से क्षेत्र में रणनीति बनाना आसान हो जाता है।
किसी भी टेस्टिंग किट को आईसीएमआर करता है पास
जब तक वैक्सीन नहीं आती तब तक टेस्ट चलता रहेगा.इस बीच टेस्टिंग किट या वैक्सीन पर भारत की योजना को बताते हुए डॉ भटनागर ने कहा कि भारत में जितने भी शोध संस्थान हैं या प्राइवेट लैब हैं, सभी इस कोशिश में लगे हैं कि वायरस की टेस्टिंग प्रोसेस या जांच किट बनाए। लेकिन देश में कोरोना वायरस को लेकर कोई भी प्रयोग या टेस्ट आईसीएमआर की देखरेख में ही हो रहा है। इसलिए अगर ऐसा कुछ बनाते हैं तो देश में या कहीं भी प्रयोग करने से पहले उनका पुणे में स्थित लैब नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, जो आईसीएमआर का लैब है, में वैलिडेशन टेस्ट किया जाता है. उसमें अगर कोई किट या टेस्ट की प्रक्रिया सफल रहती है तो ही उसको प्रयोग करने की अनुमति दी जाती है.
वैक्सीन पर आईसीएमआर का अनुसंधान जारी
इसके अलावा उन्होंने वैक्सीन के बारे में बताया बताया कि कोरोना वायरस पर दो प्रकार के अनुसंधान जारी हैं- पहला प्लज्मा थैरेपी और दूसरा बीसीजी वैक्सीन.दोनों पर काफी कुछ शोध दूसरे देशों में भी चल रहा है। हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन से कोरोना वायरस का इलाज हो सकता है, इस पर अनुसंधान किया जा रहा है. इसके अलावा आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने इस वायरस के कल्चर का पता लगा लिया है.ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक भी भारत सरकार के साथ जुड़ गए हैं और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे के साथ कार्य कर रहे हैं. जल्द ही इसमें सफलता मिलेगी.
प्लाज्मा देने से नहीं होती कमजोरी
वैक्सीन पर अनुसंधान चल रहा है लेकिन आईसीएमआर ने साफ किया है कि अभी प्लाज्मा थैरेपी भी प्रयोग में है.इसमें प्लाज्मा खून का एक हिस्सा होता है, जिसमें अगर कोई संक्रमित व्यक्ति है तो उसके अंदर वायरस से लड़ने के लिए एक एंटीबॉडी बन जाती है, जिसे निकाल कर गंभीर रूप से संक्रमित को दिया जाता है.अभी इस पर अनुसंधान चल रहा है। इसे कोई निश्चित पद्धति नहीं मान सकते। डॉ भटनागर ने बताया कि प्लज्मा के लिए किसी के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं की जाती.कोई भी व्यक्ति प्लाज्मा देने के लिए बाध्य नहीं है। जो प्लाज्मा देता है उसे कोई कमजोरी नहीं होती.