नैतिक अधमता के आरोप से बरी व्यक्ति को सशस्त्र बलों में नियुक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता: अदालत
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चंडीगढ़, 15 जनवरी: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा है कि संदेह के लाभ के आधार पर, नैतिक अधमता के आरोप से बरी किए गए व्यक्ति को सशस्त्र बलों में नियुक्ति देने से इनकार नहीं किया जा सकता. न्यायमूर्ति जगमोहन बंसल की एकल पीठ ने यह टिप्पणी हरियाणा के एक व्यक्ति की याचिका पर की, जिसमें भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आईटीबीपी) में कांस्टेबल के पद पर उसकी नियुक्ति को रद्द करने के मार्च 2022 के आदेश को निरस्त करने का निर्देश देने का आग्रह किया गया था.

अदालत ने कहा कि यह "सर्वविदित तथ्य है कि देश में नौकरी, विशेषकर सरकारी नौकरी पाना बहुत कठिन है" और याचिकाकर्ता को इस बात की अनदेखी करते हुए नियुक्ति देने से इनकार करना कि वह अपनी साख का खुलासा करने में हमेशा ईमानदार रहा, उसे ऐसे किसी अपराध के लिए सज़ा देने के समान होगा जिसमें उसे बरी कर दिया गया है. अदालत ने कहा, "मौजूदा मामले में, प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता की पूर्व पृष्ठभूमि की पड़ताल नहीं की और उसका नियुक्ति पत्र केवल इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया था."

इसने कहा, "प्रतिवादी ने कथित अपराध की प्रकृति, याचिकाकर्ता की उम्र और उस समय ‘पीड़िता’ की उम्र पर विचार नहीं किया है. याचिकाकर्ता किसी अन्य अपराध में शामिल नहीं है और उसे पहले ही बरी किया जा चुका है." याचिकाकर्ता को जनवरी 2022 में अनुकंपा के आधार पर आईटीबीपी में कांस्टेबल के पद पर नियुक्त किया गया था. हालांकि, उसके नियुक्ति पत्र को संबंधित अधिकारियों द्वारा रद्द कर दिया गया था क्योंकि उसने खुलासा किया था कि उसे एक आपराधिक मामले में फंसाया गया था और बाद में उसे बरी कर दिया गया था.

अप्रैल 2018 में, याचिकाकर्ता पर बलात्कार और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) की संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था. इस संबंध में प्राथमिकी हरियाणा के कैथल जिले के चीका थाने में दर्ज की गई थी.हालांकि, याचिकाकर्ता को जुलाई 2019 में कैथल की अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था. मार्च 2022 में, आईटीबीपी ने इस आधार पर नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया कि याचिकाकर्ता को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया था.

याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि शिकायतकर्ता और उसकी मां ने कहा है कि याचिकाकर्ता ने कथित अपराध नहीं किया था. निचली अदालत ने यह भी कहा था कि अभियोजन पक्ष पीड़िता की उम्र साबित करने में विफल रहा, जो कि पॉक्सो अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए आवश्यक है. प्रतिवादी ने इस आधार पर नियुक्ति पत्र रद्द कर दिया कि याचिकाकर्ता नैतिक अधमता के अपराध में शामिल था और उसे ‘संदेह के लाभ’ के आधार पर बरी किया गया था.

केंद्र के वकील ने कहा कि गृह मंत्रालय के 2012 के निर्देशों के अनुसार, यदि किसी को संदेह के लाभ के आधार पर बरी किया जाता है या जहां गवाह मुकर गए हैं, तो अभ्यर्थी को ‘आम तौर पर’ सशस्त्र बलों में नियुक्ति के लिए उपयुक्त नहीं माना जाएगा. वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता नैतिक अधमता के अपराध में शामिल था, इस प्रकार, प्रतिवादी याचिकाकर्ता के दावे को खारिज करने में काफी सक्षम था.

अदालत ने कहा, ‘‘प्रतिवादी गृह मंत्रालय द्वारा जारी दिनांक 01.02.2012 के निर्देशों पर बहुत अधिक भरोसा कर रहा है। निर्देशों के अनुसार, यदि कोई अभ्यर्थी बरी हो जाता है, तो नैतिक अधमता के अपराध में फंसाया गया अभ्यर्थी सशस्त्र बलों में नियुक्त किया जा सकता है या नहीं भी किया जा सकता है.’’

इसने कहा कि निर्देशों में "आम तौर पर" शब्द का उपयोग किया गया है जो दर्शाता है कि जहां कोई व्यक्ति संदेह के लाभ के आधार पर बरी किया गया हो वहां उसकी नियुक्ति पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है और ऐसे मामलों में सक्षम प्राधिकारी अभ्यर्थी के मामले पर विचार कर सकता है. अदालत ने प्रतिवादी को नियुक्ति के लिए याचिकाकर्ता के मामले पर विचार करने का निर्देश दिया.

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