
ईरान और अमेरिका के मंत्रियों की बैठक ओमान में हुई है. लेकिन यह बैठक अब क्यों हुई और इससे क्या हो सकता है?हाल ही में ईरान और अमेरिका के बीच बातच�
ईरान और अमेरिका के मंत्रियों की बैठक ओमान में हुई है. लेकिन यह बैठक अब क्यों हुई और इससे क्या हो सकता है?हाल ही में ईरान और अमेरिका के बीच बातच�
ईरान और अमेरिका के मंत्रियों की बैठक ओमान में हुई है. लेकिन यह बैठक अब क्यों हुई और इससे क्या हो सकता है?हाल ही में ईरान और अमेरिका के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ है. 12 अप्रैल को दोनों देशों के बीच ओमान की राजधानी मस्कट में बातचीत हुई जो करीब ढाई घंटे तक चली. अमेरिका इसे सीधी बातचीत कह रहा था लेकिन यह एक अप्रत्यक्ष वार्ता ही थी जिसमें दोनों देशों के मंत्री दो अलग अलग कमरों में बैठे थे और ओमान उनकी मेजबानी और मध्यस्थता निभा रहा था.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दोनों ही देशों ने इस बातचीत को ‘सकारात्मक' बताया है. ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरगची ने एक्स पर लिखा, "बातचीत आपसी सम्मान के साथ हुई...दोनों पक्षों ने कुछ दिनों में प्रक्रिया जारी रखने का फैसला किया है."
बताया जा रहा है कि अगली बातचीत 19 अप्रैल को रोम में होगी. ट्रंप ने हमेशा ‘सीधे' बातचीत का इरादा जाहिर किया है हालांकि ईरान अब भी इसे अप्रत्यक्ष ही रखना चाहता है.
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में मिडिल ईस्ट पर स्ट्रेटेजिक स्टडीज प्रोग्राम के उप निदेशक कबीर तनेजा ने डीडब्ल्यू को बताया, "ईरान अमेरिका से सीधे सीधे बात इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि लंबे समय से दोनों देशों की बातचीत मध्यस्थ वाले तरीके से ही हुई है और वह अमेरिका को बातचीत करने का एक और जरिया नहीं देना चाहते.” तनेजा ने आगे कहा कि ईरान को सऊदी अरब से ज्यादा ओमान पर यकीन है, इसलिए बातचीत वहां हुई, "और ईरान अमेरिका को भली-भांति समझता है.”
बातचीत का उद्देश्य
बातचीत की एक वजह ईरान की बिगड़ती आर्थिक स्थिति कही जा रही है. आंकड़ों के हिसाब से ईरान में 22-50 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं. अगस्त 2024 में, राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियान ने कहा था कि ईरान को महंगाई और बेरोजगारी कम करने के लिए पर्याप्त विकास दर हासिल करनी होगी. हाल ही में पेजेश्कियान ने यहां तक कहा कि खमेनेई ईरानी अर्थव्यवस्था में अमेरिकी संस्थाओं के निवेश के खिलाफ नहीं हैं, बशर्ते वो वाकई में निवेश का इरादा रखते हों.
एक और कारण है ट्रंप प्रशासन के फैसलों की अनिश्चितता. कबीर का मानना है कि दुनिया ट्रंप के अचानक लिए बड़े फैसलों से चिंतित है. "ऐसा नहीं है कि बाइडेन ने अपने समय में ईरान पर कार्रवाई करने की बात नहीं की.
बाइडेन के समय ईरान को पता था कि उसके परमाणु ढांचे पर अमेरिका हमला नहीं करेगा. लेकिन ट्रंप के अचानक और अप्रत्याशित फैसलों और शुल्कों को देखते हुए खुद अमेरिका के सहयोगी परेशान हैं. इन फैसलों से ऐसा लगना संभव है कि वह कहीं वाकई में ईरान या उसके परमाणु बुनियादी ढांचों पर आक्रमण ना कर दें.”
अमेरिका ईरान से बात करना चाहता है क्योंकि ईरान और अमेरिका की क्षेत्रीय संकटों और आर्थिक मुद्दों को लेकर नहीं बनती. अमेरिका को डर है कि अगर ईरान ने परमाणु हथियार बना लिए तो विश्व राजनीति में उसका दबदबा कम हो सकता है. तनेजा का कहना है, "अमेरिका नहीं चाहता कि ईरान कभी भी परमाणु हथियार हासिल करे. इससे दुनिया में परमाणु हथियार हासिल करने की होड़ फिर शुरू हो जाएगी. ऐसे हालातों में जहां हर तरफ प्रॉक्सी वॉर चल रहे हैं, यह सभी देशों को चिंता में डाल सकता है. इससे खाड़ी देशों में परमाणु संकट गहरा सकता है.”
यूरोप रहा बातचीत से अलग
फ्रांस के विदेश मंत्री जां-नोएल बारो ने सोमवार को कहा कि फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनीअमेरिका और ईरान के बीच परमाणु चर्चा पर नजर रखेंगे.
लग्जमबर्ग में यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों की बैठक के लिए पहुंचे बारो ने कहा, "हम अपने ब्रिटिश और जर्मन मित्रों और साझेदारों के साथ मिलकर यह तय करेंगे कि कोई भी (अमेरिका-ईरान) वार्ता हमारे सुरक्षा हितों के मद्देनजर हो.”
यूरोपीय संघ के किसी भी देश को इस बातचीत का हिस्सा बनने का न्योता नहीं दिया गया था. कबीर तनेजा मानते हैं कि इसमें कोई बुराई भी नहीं है. वो कहते हैं, "यूरोप फिलहाल यूक्रेन-रूस युद्ध में उलझा हुआ है. ऐसे में उनकी प्लेट में एक और मुद्दे की जगह मुझे नहीं दिखाई देती.”
बातचीत से उम्मीदें
फिलहाल अमेरिका और ईरान दोनों ही चाहते हैं कि आपस में आर्थिक लेन-देन दोबारा चालू हो पाए. ईरान का कहना है कि इस्लाम में परमाणु हथियार रखने की मनाही है और वो यह सिर्फ अमेरिका की वजह से कर रहे हैं. 2003 में परमाणु हथियार बनाने के खिलाफ खमेनेई ने फतवा भी जारी किया था.
बड़ा सवाल यह है कि क्या ट्रंप प्रशासन और ज्यादा रियायतों के लिए दबाव बनाएगा, जैसा कि उसने 2017 में किया था. तब ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमताओं को सीमित (समाप्त) करने और प्रॉक्सी समूहों जैसे हूथियों को ईरानी समर्थन बंदकरने की मांग की गई थी.
हालांकि जरूरी नहीं जो ट्रंप ने कहा है (2 महीने में डील करने की बात), वैसा ही हो. 2013 में भी जब अमेरिका और ईरान ने बातचीत शुरू की थी, तो वो भी मार्च में शुरू हुई और 2015 के नवंबर में सब कुछ आखिरकार लागू हुआ.
खाड़ी देशों पर नजर रखने वाले द इकोनॉमिस्ट के रिपोर्टर ग्रेग कार्लस्ट्रॉम ने लिखा है कि अमेरिकी थिंक टैंकों की अपनी चिंताएं हैं. वो लिखते हैं कि अमेरिका के थिंक-टैंकों को इस बात की आशंका होने लगी है कि इस बार ट्रंप 2015 के परमाणु समझौते से भी ज्यादा कमजोर सौदा करके आएंगे.
गजा, सीरिया और लेबनान में इस्राएल के युद्ध जैसे मुद्दों के बीच दोनों देश कैसे अपनी अपनी दिशा खोजते यह देखना भी दिलचस्प होगा. तनेजा कहते हैं, "फिलहाल ये युद्ध चलते रहेंगे, इनपर कोई असर नहीं पड़ने वाला. यह एक बहुत जटिल मसला है. भले ही सभी देश ईरान के परमाणु हथियार हासिल ना करने के पक्ष में हों लेकिन वो ये भी मानते हैं कि ईरान अब इससे बहुत दूर नहीं है.”
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