बरसाने, नंदगांव और ब्रज में ‘लट्ठमार होली’ (Lathmar Holi) की धूम मचाने के बाद फाल्गुन शुक्लपक्ष की द्वाद्वशी को होलीबाजों की टोली गोकुल (Gokul) पहुंचती है. यहीं से शुरु होती है ‘छड़ीमार होली’. इसे ‘छड़ीमार होली’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां भगवान श्रीकृष्ण का बचपन बीता है. उनके बालस्वरूप के कारण ही यहां लट्ठ की जगह छड़ी का इस्तेमाल किया जाता है. श्रीकृष्ण के बाल रूप में उनकी लीलाओं को देखने के लिए सुबह होते ही भारी संख्या में श्रद्धालु गोकुल स्थित नंदभवन मंदिर पहुंच जाते हैं.
आकर्षण का केंद्र होती है पारंपरिक वेशभूषा
प्रात: 11 बजते-बजते नंदभवन पर गोप-गोपियों एवं श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ पड़ती है. सर्वप्रथम नंदपरिवार को मेवा और केशर युक्त दूध का भोग लगाया जाता है. इसके बाद बीड़ा भोग होता है. इस अवसर पर होली खेलने आये 108 हुरियारों एवं हुरियारिनों के जोड़ों को केशर युक्त यह दूध प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है. ये हुरियारे और हुरियारिनों की वेशभूषा पूरी तरह पारंपरिक होता है. कहीं कोई दिखावा नहीं. हुरियारिनें लंबा घूंघट, चुनरी के साथ सोलह श्रृंगार करके आती हैं. इनकी वेशभूषा दूर-दराज से आए श्रद्धालुओं को सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं.
कृष्ण-बलराम की शोभा यात्रा
बारह बजते-बजते फूलों से श्रृंगार हुए पालकी में विराजमान श्रीकृष्ण एवं बलराम का दर्शन भक्तों को कराया जाता है. इसके पश्चात मंदिर के पुजारी श्रीकृष्ण बलराम की आरती उतारते हैं. श्रीकृष्ण-बलराम पर फूलों की इतनी वर्षा होती है कि पूरी सड़क फूलों से पट जाती है. शहनाई वादक शहनाई बजाते हैं यह होली शुरु होने का प्रतीक होता है. गोकुलवासियों एवं दूरदराज से आये कृष्ण भक्तों की जय-जयकार से पूरा गोकुल गूंज उठता है. अब शुरु होती है हुरियारों एवं हुरियारिनों के बीच छड़ी मार होली का उत्सव. महिलाएं होली गीत गाती हैं. अबीर-गुलाल की वर्षा से मानों आसमान रंगीन हो जाता है. होली खेलते हुए यह टोली पालकी के साथ नंद चौक पहुंचती है. यहां पहुंचते-पहुंचते हुरियारों एवं हुरियारिनों का जोश दुगना हो गया. यहां करीब आधे घण्टे तक होली के गीतों और अबीर गुलाल के बीच छड़ी मार होली चलती है. लोग झूमते नाचते होली गीत गाते हैं.
मत मारे दृगन की चोट रसिया,
होली में मेरे लग जायगी...
तेरी मेरी कट्टी है जाएगी और नैंनन में श्याम समाय गयौ..
मोय प्रेम को रोग लगाय गयो..
मुरलिया घाट पर उत्सव का समापन
यहां काफी देर तक होली खेलने के बाद पालकी विभिन्न मार्गों से होते हुए यमुना नदी के किनारे स्थित मुरलिया घाट पहुंचती है. यहां कृष्ण बलराम को कुछ देर विश्राम कराया जाता है. उन्हें तरह-तरह के व्यंजनों का भोग चढ़ाया जाता है. उधर छडीमार होली अपनी चरम पर होती है. कान्हा एवं उनके साथी गोपियों से छेड़छाड़ करते हुए छड़ी खाते हैं. रंगों की बौछार से श्रद्धालुओं एवं गोकुलवासियों का रोम-रोम होली के रंग में रंग जाता है. कन्हैया व उनके साथियों को ज्यादा चोट न लगे. यह ख्याल भी सखियों के दिल में रहता है. यह भी पढ़ें- Holi 2019: कृष्ण जन्मभूमि ब्रज में बलराम-राधा के बीच खेली गई होली से लोकप्रिय हुई देवर-भाभी की होली, कैसे जानिए
कान्हा के सखा हुरियारे-चंचल गुजरिया बनी आज भोरी,
‘छड़ी मार’ होली के बाद श्रीकृष्ण बलराम की झांकी का पर्दा खुलता है, तो चारों ओर से कान्हा की जय-जयकार होने लगती है. इसी समय पालकी के साथ आये पुजारी जैसे ही चांदी की पिचकारी से भगवान पर रंग डालते हैं, चारों ओर एक बार पुनः अबीर-गुलाल और टेसू के रंगों की बौछार शुरु हो जाती है. मुरलिया घाट टेसू के रंग से रंग सराबोर हो जाता है.
कहते हैं जिस गांव में श्रीकृष्ण ने बचपन में लीलाएं की थी, वहां अचानक द्वापर युग की दिव्य होली जीवंत हो उठी थी. गोकुल में यह उत्सव पूरी परंपरा के साथ हजारों वर्षों से मनाया जा रहा है.