Tulsi Vivah 2019: हमारा देश भारत विभिन्न संस्कारों, संस्कृतियों, आस्थाओं तथा किस्म-किस्म के पर्व एवं परंपराओं का देश है. यहां जन-जन में धारणा है कि ईश्वर कण-कण में वास करता है, इसीलिए यहां विभिन्न तिथियों पर पशु-पक्षियों-पर्वतों-नदियों-सूर्य-चंद्रमा एवं पेड़ पौधों आदि की परंपरागत तरीके से पूजा की जाती है. इसी का एक उदाहरण है ‘तुलसी विवाह’. यह पर्व प्रतिवर्ष कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मनाया जाता है. हमारे पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है कि कार्तिक मास में जो भक्त तुलसी का भगवान श्री शालीग्राम से विवाह रचाते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, उन्हें वैकुण्ठधाम की प्राप्ति होती है. आइये जानें तुलसी की रोमांचक कथा.
श्रीमद् देवी भागवत पुराण में माँ तुलसी के अवतरण की दिव्य कथा उल्लेखित है. एक बार भगवान शिव ने सूर्य से भी ज्यादा अपने दिव्य तेज को समुद्र में फेंक दिया था. उससे एक महातेजस्वी बच्चे का जन्म हुआ, जो बाद में पराक्रमी दैत्यराज जालंधर के नाम से लोकप्रिय हुआ. जालंधर का विवाह दैत्यराज कालनेमी की पुत्री वृंदा से हुआ.
जब लक्ष्मी एवं पार्वती पर मोहित हुआ जालंधर-
जालंधर अदम्य साहसी, शक्तिशाली राक्षस था. अपनी दिव्य शक्ति एवं सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कोशिश की. लेकिन समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार चुकी थीं. लक्ष्मी से हताशा मिलने के बाद जालंधर के मन में पार्वती को पाने की लालसा उत्पन्न हुई. वह भगवान शिव का रूप धारणकर कैलाश पर्वत पर पहुंचा, किंतु शिव जी एवं माता पार्वती ने अपनी योगशक्ति से दैत्यराज जालंधर को तुरंत पहचान लिया. माता पार्वती अंतर्ध्यान होकर भगवान श्रीहरि के पास पहुंची और दैत्यराज जलंधर के बारे में बताया. उधर जालंधर और भगवान शिव में भयंकर युद्ध छिड़ गया.
श्रीहरि ने क्यों किया वृंदा का स्त्रित्व भंग-
श्रीहरि जानते थे कि जालंधर की पत्नी वृंदा एक पतिव्रता स्त्री है. पतिव्रता धर्म की शक्ति के कारण ही दैत्यराज जालंधर को किसी भी शक्ति से मार पाना असंभव था. जालंधर का संहार करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था. उन्होंने माता पार्वती को जालंधर को सबक सिखाने का आश्वासन देकर कैलाश भेज दिया. श्रीहरि एक ऋषि का वेश धारण कर वृंदा के पास पहुंचे, उस समय वृंदा वन में अकेली भ्रमण कर रही थीं. श्रीहरि के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा डर गयीं. यह देख ऋषि का रूप लिए श्रीहरि ने दोनों राक्षसों को भस्म कर दिया. ऋषि की दिव्य शक्ति देख वृंदा ने कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर की कुशलक्षेम जानना चाहा, तो ऋषि ने दो मायावी वानरों को प्रकट किया. एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था, दूसरे के हाथ में धड़ था. पति जालंधर के मृत शरीर को देखकर वृंदा मूर्छित हो कर गिर पड़ीं. थोड़ी देर बाद होश में आने पर उन्होंने ऋषि से प्रार्थना की कि वह उसके पति को जीवित कर दें. ऋषि (श्रीहरि) ने जालंधर का सिर एवं धड़ जोड़कर उसे जीवित कर दिया, लेकिन साथ ही चतुराई से उसके शरीर में प्रवेश कर गये. जालंधर का रूप लिये श्रीहरि से वृंदा पति की तरह व्यवहार करने लगी. इससे उसका स्त्रीत्व भंग हो गया. ऐसा होते ही जालंधर भगवान शिव के हाथों मारा गया, जालंधर का मृत शरीर वृंदा के समक्ष गिरा, तब उसे श्रीहरि की लीला समझ में आई.
सतीत्व नष्ट होने पर वृंदा ने क्रुद्ध होकर श्रीहरि को शिला होने का श्राप देकर स्वयं पति जालंधर के मृत शरीर के साथ सती हो गई. वृंदा जहां सती हुई थी, वहां तुलसी का पौधा उगा. श्रीहरि ने वृंदा से कहा, ‘हे वृंदा, तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय लगने लगी हो. अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी. जो भी मनुष्य मेरे शिलारूपी शालिग्राम का विवाह तुम्हारे साथ करेगा, उसे मृत्यु से पूर्व विपुल यश-सुख-समृद्धि तथा मृत्योपरांत वैकुण्ठधाम में जगह मिलेगी.
श्रीहरि ने आगे कहा, जिस घर में तुलसी होगी, वहां यमदूत भी असमय नहीं जा सकेंगे. गंगा-नर्मदा के जल में स्नान करने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वही पुण्य तुलसी के साथ श्रीहरि की पूजन करके प्राप्त होगा. तमाम पाप कर्म करने के बाद भी मृत्योपरांत जिसके मुख में तुलसी एवं गंगा जल रखा जायेगा, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठधाम पहुंचेगा. जो भी व्यक्ति तुलसी एवं आंवले की छांव में अपने पितरों की श्राद्ध करेगा, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त होंगे.