चौरी-चौरा कांड इस बात का संकेत था कि अंग्रेजी हुकूमत और उनकी दोगली नीति से जनता त्रस्त थी, उन्हें पता था कि अंग्रेजों से आजादी पाने के लिए गांधीजी की अहिंसात्मक लड़ाई पर्याप्त नहीं थी. इसलिए जनता ने जरूरत पड़ने पर कई बार हिंसा का जवाब हिंसा से दिया. यही बात चौरी चौरा कांड में भी देखने को मिली. आज आजादी के 76 साल बाद भी बहुसंख्य मानते हैं कि आजादी मांग कर नहीं छीन कर पाई है. बहरहाल इस तथ्य और कथ्य की लंबी कहानी है. हम बात करेंगे चौरी चौरा कांड की 101वीं बरसी की. आइये जानते हैं इस ऐतिहासिक घटना बारे में विस्तार से...
क्या है चौरी-चौरा?
चौरी-चौरा वस्तुतः उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) स्थित गोरखपुर का एक कस्बा था. किसी समय यह चौरी और चौरा नाम से दो विभिन्न गांव हुआ करते थे. ब्रिटिश भारतीय रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने 1885 में इन दोनों गांव को जोड़ते हुए यहां एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की, और इसे नाम दिया चौरी-चौरा.
चौरी-चौरा की पृष्ठभूमि?
गांधीजी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1 अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू किया था. गांधीजी के इस आंदोलन के समर्थन में 4 फरवरी को चौरी-चौरा में स्थानीय बहुसंख्य किसान आंदोलनकारियों ने एक शांति जुलूस निकाला, जिसमें भारी जनसैलाब उमड़ा. ब्रिटिश पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए लाठियां चलाईं, लेकिन इसका आंदोलनकारियों पर कोई असर नहीं पड़ा, पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. इस गोलीबारी में कई स्थानीय आंदोलनकारियों की मृत्यु हो गई. पुलिस के इस बर्बर एक्शन से शांति जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों, जिसमें किसानों की भारी तादाद थी, का गुस्सा भड़क उठा. उन्होंने चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन पर हमला कर उसे जला दिया, जिसमें 23 पुलिसकर्मी मारे गये. अंततः 12 फरवरी 1922 को बारदोली में कांग्रेस की एक मीटिंग में गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छेड़े अपने असहयोग आंदोलन को वापस लेते हुए चौरी-चौरा कांड का विरोध किया. हालांकि क्रांतिकारियों के आक्रोश ने ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ा दी थी.
अंग्रेजी हुकूमत की दमनात्मक कार्रवाई
चौरीचौरा कांड ने ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी. आक्रोशित अंग्रेज प्रशासन ने दमनात्मक कार्रवाई करते हुए हजारों क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया. 9 जनवरी 2023 को सेशन कोर्ट ने 172 क्रांतिकारी किसानों को फांसी की सजा सुनाई. पंडित मदनमोहन मालवीय सहित कई वकीलों ने बचाव में जमकर पैरवी की. परिणामस्वरूप 30 अप्रैल 1923 को चीफ जस्टिस एडवर्ड ग्रीमवुड मेयर्स और सर थियोडोर पिगाट की खंडपीठ ने 19 क्रांतिकारियों को फांसी, 14 को आजीवन कारावास, 19 को 8 साल, 57 को 5 साल, 20 को 3 साल की सजा सुनाई. 38 क्रांतिकारियों को रिहा किया गया. जिन्हें फांसी की सजा सुनाई थी, उन्हें 2 से 11 जुलाई की अलग-अलग तिथियों पर फांसी पर लटका दिया गया.
आंदोलन वापसी पर गांधीजी की भर्त्सना!
1 अगस्त 1920 से शुरू हुए असहयोग आंदोलन को संपूर्ण देशवासियों का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ. व्यापारी वर्ग विदेशी वस्तुओं के व्यापार से परहेज करने लगा था. काउंसिल चुनावों पर भी विपरीत असर दिखा, जहां सिर्फ 5 से 8 फीसदी मतदान हुआ. विदेशी कपड़े का 102 करोड़ रुपये का आयात घटकर 57 करोड़ रह गया. ब्रिटिश हुकूमत खासी निराश थी. इसलिए चौरी चौरा कांड के बाद जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा की तो सभी शीर्षस्थ नेताओं ने इसकी आलोचना की. सुभाष चंद्र बोस ने कहा, जनता का इतना समर्थन मिलने के बाद पीछे हटना उनके उत्साह पर पानी फेरना होगा. मोतीलाल नेहरू और सीआर दास ने भी इसे गलत निर्णय मानते हुए 1923 में स्वराज पार्टी की नींव रखी. क्रांतिकारियों ने भी गांधी के फैसले का विरोध किया, जिनमें सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, जतिन दास, भगत सिंह, मास्टर सूर्य सेन, भगवती चरण वोहरा आदि प्रमुख थे.