अमेरिकी इतिहास में बहुत पहले नाकाम हो चुका है टैरिफ
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

आज डॉनल्ड ट्रंप जिन शुल्कों के जरिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था को उबारने की बात कर रहे हैं वह अमेरिका के लिए इससे पहले नाकामी और महामंदी का कारण बना था.ग्रेट डिप्रेशन यानी महामंदी के शुरुआती दिनों में रिपब्लिकन सांसद विलीस हाउले और उटा के सीनेटर रीड स्मूट ने यह समझा कि उन्हें अमेरिकी किसानों और निर्माताओं को विदेशी मुकाबले से बचाने का उपाय मिल गया है. टैरिफ यानी आयात शुल्क के बारे में इन दोनों अमेरिकी नेताओं की यही राय थी. राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर ने 1930 में स्मूट-हावले टैरिफ एक्ट पर दस्तखत किया.

बहुत से अर्थशास्त्रियों ने चेतावनी दी थी कि इसके बदले दूसरे देश भी जवाबी शुल्क लगाएंगे और बिल्कुल यही हुआ भी. अमेरिकी अर्थव्यवस्था विनाशकारी संकट में गहराई तक उतर गई और फिर दूसरा विश्वयुद्ध होने तक उससे बाहर नहीं निकल सकी. बहुत से इतिहासकार स्मूट-हावली को गलती मानते हैं जिसने आर्थिक वातावरण बेहद बिगाड़ दिया.

आयात शुल्क को अब एक नया झंडाबरदार मिल गया है, डॉनल्ड ट्रंप. ट्रंप की तरह हूवर को भी उनकी कारोबारी सफलता ने चुनाव में जीत दिलाई थी. अंतरराष्ट्रीय माइनिंग इंजीनियर, फाइनेंसर और मानवतावादी हूवर ने 1929 में किसी ऊर्जावान सीईओ की तरह देश की कमान संभाली. वह सार्वजनिक और निजी साझेदारी को बढ़ाना चाहते थे और सरकारी लगाम खींच कर आर्थिक विकास को बढ़ावा देना चाहते थे.

हूवर ने शपथ लेने के बाद कहा था, "हर कोई ना सिर्फ अमीर हो सकता है बल्कि अमीर होना चाहिए." इसके तुरंत बाद उन्होंने संसद का विशेष सत्र बुलाया और अमेरिकी किसानों को संरक्षित करने के लिए "शुल्कों में सीमित बदलाव किए." हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति को इसके नतीजे में मिली महामंदी.

शुल्क के नए चैंपियन ट्रंप

शुल्क लगाने के महारथी बनने की कोशिश में ट्रंप ने दुनिया के बाजारों में कोहराम मचा दिया है. उनकी दलील है कि विदेशों से आने वाली चीजों पर भारी शुल्क लगाकर ही अमेरिका बड़ा बना था. राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि उनके देश ने 1913 में संघीय आयकर बनने के बाद इसे छोड़ दिया. पिछले हफ्ते अपनी शुल्क योजना की घोषणा करते वक्त ट्रंप ने कहा, "1929 में यह सब महामंदी के साथ अचानक खत्म हो गया. ऐसा बिल्कुल नहीं होता अगर वे अपनी शुल्क नीति पर कायम रहते."

स्मूट-हावले का हवाला दे कर उन्होंने यह भी कहा, "उन्होंने हमारे देश को बचाने के लिए शुल्कों को लाने की कोशिश की लेकिन वह जा चुका था. बहुत देर हो गई थी. कुछ नहीं किया जा सका, उस मंदी से बाहर निकालने में सालों साल लग गए."

अमेरिकी इतिहास में ऊंचे आयात शुल्क 2013 के बाद भी जारी रहे थे. ट्रंप का यह कहना कि मंदी उस वजह से आई थी और हूवर के जमाने में सरकार ने क्या किया, वह नहीं बताता जो वास्तव में हुआ. कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर गैरी रिचर्डसन का कहना है कि अमेरिका में लंबे समय तक ऊंचे शुल्कों ने, "उद्योगों के यहां आने में मदद दी, लेकिन हमने उससे छुटकारा पाया क्योंकि बेहतरीन तकनीक के मामले में हमें नहीं लगता कि वह उपयोगी है."

रिचर्डसन फेडरल रिजर्व सिस्टम के पूर्व इतिहासकार भी रहे हैं. उन्होंने यह भी कहा, "दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब हम सबसे ज्यादा ताकतवर थे, तब हमने दुनिया के ज्यादातर देशों पर कम शुल्क वाली सत्ता के लिए जोर लगाया क्योकि हमें लगा कि वह हमारे लिए फायदेमंद है. अब हम कहीं और जा रहे हैं."

अमेरिका में पहली बार लगा आयात शुल्क

जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1789 में पहली बार टैरिफ एक्ट पर दस्तखत किया था. यह संसद का पहला प्रमुख विधेयक था. इसके तहत अमेरिका में आयात की जाने वाली कई चीजों पर 5 फीसदी की दर से शुल्क लगाए गए. तब अमेरिका में कोई संघीय आयकर नहीं था. उस वक्त यह नीति सरकार के लिए राजस्व के स्रोत ढूंढने के लिए शुरू की गई थी. इसके साथ ही एक मकसद अमेरिकी उत्पादकों को विदेशी मुकाबलों से संरक्षित करना भी था.

1812 के युद्ध के बाद जब ब्रिटेन के साथ अमेरिकी कारोबार में बाधा आई तो अमेरिका ने 1817 में और ज्यादा शुल्कों को मंजूरी दे दी गई. इसका मकसद घरेलू उत्पादकों को सस्ते और खासतौर से कपड़े के आयात से संरक्षित करना था.

ऊंचे शुल्क कई साल तक बने रहे, उसकी वजह यह थी कि सरकार राजस्व बढ़ाना चाहती थी क्योंकि गृहयुद्ध के दौरान जो कर्ज लिया गया था उसे चुकाना था.1980 के टैरिफ एक्ट ने 1,500 से ज्यादा चीजों पर 49.5 फीसदी की दर से टैक्स लगा दिया. विलियम मैकिनले रिपब्लिकन सांसद थे और 1896 में राष्ट्रपति चुने गए. यह वही मैकिनले हैं जिनें ट्रंप अपना नायक मानते हैं. उन्हें "संरक्षणवाद का नेपोलियन" कहा जाता है."

हालांकि इस कदम के बाद कीमतें बढ़ने लगीं और अमेरिकी अर्थव्यवस्था नीचे जाने लगी. 1893 के हाहाकार के बाद तो यह और बुरे दौर में पहुंच गया. तब देश में बेरोजगारी की दर 25 प्रतिशत पर चली गई. इतिहासकार इसी दौर को "ग्रेट डिप्रेशन" कहते रहे जब तक कि यह और गिर कर वास्तव में ग्रेट डिप्रेशन में नहीं बदल गया.

शुल्कों की जगह संघीय आयकर

1909 में जब संसद ने 16वां संशोधन पारित किया तो राष्ट्रीय आयकर देश में स्थाई रूप से लागू हुआ. चार साल बाद इसकी पुष्टि हुई. ट्रंप चाहे जो कहें लेकिन इसके बाद जो हुआ वह लगातार आर्थिक विकास था. इसे टेलिफोन जैसे तकनीकी विकास और पहले विश्व युद्ध के बाद उपभोक्ता खर्चों में बढ़ोत्तरी से भरपूर फायदा मिला.

निर्माण में तेजी, उत्पादन में बढ़ोत्तरी खास तौर से उपभोक्ता सामानों में जिसमें ऑटोमोबाइल भी शामिल था उसने विकास को चिंगारी दिखाई. अमेरिकी शेयर बाजार का सूचकांक डाउ जोंस का औद्योगिक औसत छह गुना बढ़ गया. अगस्त 1921 में यह 63 अंक पर था जो सितंबर 1929 में 400 को छूने लगा.

यह बंधनों और जैज संगीत का दौर था यानी वह समय जब शहरीकरण हो रहा था. तब तक कृषि अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख चालक बना हुआ था. काम की परिस्थितियां बहुत खराब थीं लेकिन मध्यमवर्ग के लिए जीवन स्तर सुधर रहा था. उसके हाथ में रेडियो और वाशिंग मशीन जैसी चीजें आने लगी थीं.

ऊंचे दर पर शुल्क की नीति भी जारी रही. 1922 में संसद ने फॉर्डने मैकुंबर एक्ट पारित किया. जिसने आयात की जाने वाली चीजों पर शुल्क को अमेरिका के इतिहास में सबसे ऊंचा कर दिया. इसके पीछे भी घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने का तर्क था. हालांकि इसके बाद अमेरिका के प्रमुख कारोबारी साझीदारों ने भी जवाबी कार्रवाई करके शुल्क बढ़ा दिया. ठीक उसी तरह जैसे अभी चीन और दूसरे देश ट्रंप के शुल्कों का जवाब दे रहे हैं.

ब्लैक ट्यूज्डे और ग्रेट डिप्रेशन

1928 और उसके अगले साल जब फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर बढ़ा दी तो अर्थव्यवस्था मंद होने लगी. विचार यह था कि कर्ज ले कर शेयर खरीदने वाले ब्रोकरों और फर्मों को उधार देना कर कर के स्टॉक मार्केट के बुलबुले को थोड़ा नर्म किया जाए. हालांकि इसके बाद ब्रिटेन और जर्मनी में ब्याज दरें बढ़ गईं जिसने दुनिया भर में उपभोक्ता खर्च और उत्पादन को घटा दिया. नतीजा यह हुआ कि 1929 की गर्मियों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी में चली गई.

ग्रेट डिप्रेशन 29 अक्टूबर, 2029 को ""ब्लैक ट्यूज्डे" से शुरू हुआ. घबड़ाहट में शेयरों की बिक्री हुई और बाजार औंधे मुंह गिर गया. हजारों निवेशकों की जमा पूंजी के साथ ही वो पैसा भी स्वाहा हो गया जो उन्होंने भारी कर्ज लेकर शेयर बाजार में लगाए थे. उपभोक्ता मांग में कमी आई तो कंपनियों ने कर्मचारियों की छुट्टी कर दी और फैक्ट्रियों में सन्नाटा फैल गया.

इसके अगले साल अमेरिका में बेरोजगारी की दर 25 फीसदी पर चली गई जबकि आर्थिक उत्पादन लगभग 30 फीसदी तक नीचे गिर गया. हजारों बैंक फेल हुए और बड़ पैमाने पर व्यापार बंद हो गए. इतना ही नहीं लाखों अमेरिकी लोग बेघर हो गए.

स्मूट-हावले एक्ट

खुद से अर्जित संपत्ति और दुनिया की सहानुभूतियों ने हूवर को ट्रंप से एक बिल्कुल अलग व्यक्तित्व दिया था. 9 साल की उम्र में वह अनाथ हो गए थे और पहले विश्वयुद्ध के दौरान लंदन में रहते हुए उन्होंने मानवीय भोजन राहत के लिए बड़ी कोशिशें की थी. राष्ट्रपति की दौड़ में उतरने से पहले वह वाणिज्य मंत्री भी रहे थे. केंटुकी यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर डेविड हैमिल्टन कहते हैं, "हर्बर्ट हूवर के लिए कुछ भी नाटक नहीं था."

किसानों को बचाने के चुनावी वादे के साथ हूवर ने संसद पर ऊंचे कृषि आयात शुल्क के लिए दबाव बनाया. हालांकि मुख्य मकसद किसानों को नई किस्म की फसलें उगाने के लिए बढ़ावा देना था. हैमिल्टन का कहना है, "उन्होंने व्यापार को हथियार नहीं बनाया था जैसा कि हम आज देख रहे हैं."

हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के सदस्य हावली ने किसानों के संरक्षण की बात उठाई थी. हालांकि उन्होंने जो बिल तैयार किया वह उससे कहीं आगे निकल गया और ऊंचे शुल्कों को मैन्यूफैक्चरिंग के संरक्षण के लिए भी लागू कर दिया गया. मई, 1929 में यह बिल पास हुआ.

सीनेट की फाइनेंस कमेटी के प्रमुख स्मूट ने इसे मार्च 1930 में उसे वहां से पास कराने में भूमिका निभाई. कुछ सुधारों के साथ जून 1930 में यह एक्ट पास हुआ जिसे स्मूट-हाउली नाम दिया गया. 1,000 से ज्यादा अमेरिकी अर्थशास्त्रियों ने जब इस पर वीटो करने के लिए अनुरोध किया तो हूवर ने भी इस पर आपत्ति की लेकिन बिल पर दस्तखत कर दिए. इसके बाद उन्होंने बयान दिया, "मौजूदा तंत्र में ना कोई टैरिफ बिल बना है, ना बनेगा जो बिल्कुल सही हो."

अमीर परिवार में पैदा हुए और कारोबारी से राष्ट्रपति बने ट्रंप रियल इस्टेट के बड़े खिलाड़ी और रियलिटी टीवी के स्टार रहे हैं. 2016 में राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने कभी सरकार में काम नहीं किया. ट्रंप लंबे समय से आयात शुल्क को अमेरिकी अर्थव्यवस्था और मैन्यूफैक्चरिंग को संरक्षित करने का तरीका मानते रहे हैं. भले ही इसके लिए वैश्विक कारोबारी साझेदारों की कीमत चुकानी पड़े. उन्होंने एकतरफा शुल्क लागू करने में संसद को बाइपास करने के लिए "आर्थिक आपातकाल" की भी घोषणा कर दी.

अंतरराष्ट्रीय सहयोग घटा और राष्ट्रवाद मजबूत हुआ

स्मूट-हावली ने हजारों चीजों के आयात पर 20 फीसदी के औसत से शुल्क लगाया था. जिस पर अमेरिका के कारोबारी साझीदारों ने जवाबी कार्रवाई की. रिचर्डसन का कहना है रक्षा जैसे गैरकारोबारी मुद्दों पर भी अंतरराष्ट्रीय सहयोग घट गया. इसने हिटलर के उदय का रास्ता बनाया. रिचर्डसन का कहना है, "ऐसे कुछ उद्योग थे जहां उन्होंने फायदा कमाया लेकिन कुल मिला कर अमेरिका और दुनिया के लोगों को नुकसान ही मिला."

अमेरिकी उत्पादकों ने देखा कि उनके सामानों का विदेशी बाजार गायब हो गया साथ ही उत्पादन और उपभोक्ता खर्च और ज्यादा कम हो गया. हाउले 1932 में ओरेगॉन की अपनी सीट हार गए जबकि नवंबर में स्मूट को भी पराजय का सामना करना पड़ा. डेमोक्रैट नेता फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट ने हूवर को राष्ट्रपति चुनाव में हराया.

स्मूट, हावले और हूवर मोटे तौर पर अपनी शुल्क नीति का बाद के सालों में बचाव करते रहे और अंतरराष्ट्रीय कारोबार नीतियों को के साथ ही बाहरी मौद्रिक ताकतों और डेमोक्रैटिक पार्टी के नेताओं को अमेरिका की आर्थिक मुश्किलों के लिए दोषी ठहराते रहे.

अर्थव्यवस्था में सुधार तब तक शुरू नहीं हो सका जब तक कि 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध का शंख नहीं बज गया. विश्व युद्ध ने फैक्ट्रियों में उत्पादन के लिए मांग बढ़ा दी. दिसंबर 1930 में हूवर ने कहा था, "आर्थिक मंदी का इलाज विधायी कदम या कार्यकारी घोषणाओं से नहीं हो सकता. आर्थिक घावों का इलाज आर्थिक शरीर की कोशिकाओं यानी उत्पादकों और ग्राहकों को खुद ही करना होगा."

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