World Hindi Day 2023: हिंदी भाषियों के लिए यह गौरवान्वित करने वाली बात है कि उनकी हिंदी आज दुनिया की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है. वर्तमान में हिंदी भाषियों की संख्या अंग्रेजी जानने वालों से अधिक तेजी से बढ़ रही है. हिंदी के माध्यम से ही विश्व की जनता से भारतीयों का संवेदनात्मक रिश्ता बन रहा है. सुविख्यात प्रोफेसर हरमोहिंदर सिंह के अनुसार अमेरिका एवं कनाडा जैसे देशों में हिंदी भाषा की उन्नति तथा विकास का मसौदा तैयार कर संसद में अलग से बजट पारित किया गया. विश्व में हिंदी का स्थान उसकी समाहार शक्ति और विशालता का इससे बेहतर परिचय क्या हो सकता है. हम उन मूर्धन्य 5 साहित्यकारों की बात करेंगे, जिन्होंने हिंदी को दुनिया भर में मान-सम्मान दिलाने में अहम भूमिका निभाई. विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आइये जानें ऐसे 5 विश्वविख्यात साहित्यकारों के बारे में. यह भी पढ़े: World Hindi Day 2023: कब और क्यों मनाया जाता है विश्व हिंदी दिवस? जानें इसका इतिहास, उद्देश्य एवं सेलिब्रेशन!
भारतेंदु हरिश्चंद्र:
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र को भारतीय नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है. इनका जन्म 9 सितंबर 1850 में काशी (वाराणसी) के वैश्य परिवार में हुआ था. बाल्यकाल में ही माता-पिता का निधन होने से उन्हें वात्सल्य प्रेम से वंचित रहना पड़ा था. किशोरावस्था से ही उनका हिंदी के प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व योगदान रहा है. भारतेंदु ने पत्रकारिता भी की और बाल बोधिनी समेत हिंदी की कई पत्र-पत्रिकाएं निकालें. इसके अलावा उन्होंने नाटक, काव्य, कहानी, उपन्यास लिखे. उन्होंने गुलामी, गरीबी और शोषण का का बखूबी चित्रण किया है.
मुंशी प्रेमचंद:
‘उपन्यास सम्राट’ मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्तव) ने हिंदी साहित्य को एक निश्चित दिशा दी. इनका जन्म लमही (वाराणसी) में 31 जुलाई 1880 को हुआ था. प्रेमचंद्र का कथा साहित्य आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना अपने दौर में रहा है. उनकी रचनाओं में मुख्यतः गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्रण दर्ज है. जिसमें सद्गति, कफन, निर्मला, गोदान, पूस की रात, रंगभूमि जैसे अनगिनत रचनाएं हैं. बचपन में ही उनकी माँ का स्वर्गवास होने और सौतेली माँ के सानिध्य में उनका बचपन बहुत पीड़ा और संकट में गुजरा था. उनकी पीड़ा उनकी रचनाओं में झलकती है.
श्री मोटूरि सत्यनारायण
हिंदी को राष्ट्रभाषा मनोनीत करने दक्षिण भारत के साहित्यकारों की भी अहम भूमिका रही है. इन्हीं में एक थे कृष्णा जिले (आंध्र प्रदेश) के दोंडापाडू गांव में जन्मे श्री मोटुरी सत्यनारायण. इन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के आंदोलन में जितना सक्रिय योगदान दिया, उतना दक्षिण भारत में किसी और ने नहीं दिया. श्री मोटूरि ने हिंदी के अनेक पदों पर कार्य करते हुए जीवन भर अपनी सेवाएं हिंदी को दिया. वह महात्मा गांधी के अत्यंत विश्वसनीय थे. उन्होंने दक्षिण के साहित्य पर अनेक लेख लिखकर हिंदी पाठकों को दक्षिण के साहित्य से परिचित कराया. उनके संपादन में ‘हिंदी विश्व कोश’ दस भागों में निकला था.
हरमोहिंदर सिंह बेदी
पंजाब में जन्में डॉ. हरमोहिंदर सिंह बेदी के पिता रेलवे स्टेशन में मास्टर थे. पिता की प्रेरणा से उनका रुझान हिंदी की तरफ बढ़ा. उन्होंने एमए हिंदी करने के साथ-साथ भागलपुर यूनिवर्सिटी से डी लिट और पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला से एमए पंजाबी में भी की. इसका मकसद हिंदी और पंजाबी के पुल को समझना था. उनके मार्गदर्शन में 40 बच्चों ने पीएचडी और 60 बच्चों ने एम फिल की पढ़ाई पूरी की है. पंजाबी भाषा में अच्छी पकड़ होने के बाद भी उन्होंने हिंदी के प्रति अपने प्रेम को बनाए रखा. भारत के अलावा उन्होंने कनाडा, डेनमार्क, नार्वे, पाकिस्तान, भुटान और सिंगापुर में भी अपने शोधपत्र पढ़े. उनके उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.
जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद कवि, कथाकार, नाटककार, एवं उपन्यासकार आदि रहे हैं. हिंदी साहित्यकारों में पहली शख्सियत थे, जिनकी पकड़ हर विधा पर समान थी. उनकी प्रमुख रचनाएं हैं, झरना, आंसू, लहर, कामायनी (काव्य) स्कंदगुप्त चंद्रगुप्त, पूर्वा स्वामिनी जन्मेजय का नाग यज्ञ (नाटक) छाया, आकाशदीप, आँधी. इंद्रजाल (कहानी संग्रह) तथा कंकाल तितली इरावती (उपन्यास) वे छायावाद के शीर्षस्थ कवि थे. इनका जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी के प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था.
बचपन में ही पिता के निधन से पारिवारिक उत्तरदायित्व इनके कंधों पर आ गया. उन्होंने स्वाध्याय द्वारा संस्कृत, पाली, हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य का विशद ज्ञान प्राप्त किया. कामायनी उनका अन्यतम काव्य ग्रंथ है, जिसकी तुलना संसार के श्रेष्ठ काव्यों से की जाती है. मानव सौन्दर्य के साथ-साथ इन्होंने प्रकृति सौन्दर्य का सजीव एवं मौलिक वर्णन किया, यानी सत्यं शिवं सुन्दरम् का जीता जागता रूप प्रसाद के काव्य में मिलता है. इन्होंने ब्रजमाषा एवं खड़ी बोली दोनों का प्रयोग किया है.