राजस्थान: तपते रेगिस्तान में नयी तकनीक से लहलहाएगी मूंग, मोठ, बाजरा की फसल
तपते रेगिस्तान में नयी तकनीक से लहलहाएगी फसल (Photo Credit: PTI)

जयपुर: थार के तपते रेगिस्तान में जहां तक नजर जाती है रेत के टीलों और धूप की मार से झुलसकर ठूंठ बन चुके पौधे दिखाई देते हैं, लेकिन अब एक नयी तकनीक की वजह से रेगिस्तान में मूंग, मोठ और बाजरे जैसी पारंपरिक फसलों की खेती संभव हुई है. राजस्थान के बाड़मेर जिले में ऐसा एक सफल प्रयोग किया गया है. दरअसल बहुत कम बारिश और झुलसाने वाली गर्मी के चलते बाड़मेर के खेतों में कोई फसल नहीं हो पाती. माटी में नमी की कमी के चलते ज्यादातर पौधों की जड़ें जम नहीं पातीं. जो पौधे किसी तरह पनप जाते हैं उन्हें ऊपर की गर्मी झुलसा देती है. ऐसे में एक नयी और सस्ती तकनीक वरदान साबित हुई है.

जोधपुर स्थित केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) के पूर्व दलहन वैज्ञानिक डी कुमार ने केयर्न इंडिया तथा पूना की स्वयं सेवी संस्थान 'बाइफ' :बाइफ डवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन: के सहयोग से बाड़मेर में मेघवालों की ढाणी तथा रानीसर गांवों मेँ कम मौसमी वर्षा के बावजूद, सस्ती तकनीक के जरिये मूंग, मोठ एवं बाजरा की उन्नत तथा बम्पर फसल पैदा करने का प्रयास किया है.

डी कुमार ने 'भाषा' को बताया कि बाड़मेर के रेगिस्तानी इलाकों में इस वर्ष 91 एमएम से कम बारिश होने के कारण किसानों की चिंता बढ़ गई थी. वहां गर्मी की स्थिति का आंकलन करने के बाद खेतों को समतल कर खरपतवार हटाई गई और गहरी जुताई की गई. फिर उसमें 50-60 एकड़ भूमि के हिसाब से देसी खाद के साथ साथ, फसल को दीमक और जड़ की गलन से बचाने के लिये पांच किलोग्राम प्रति एकड़ के आधार पर ट्राईकोडर्मा डाला गया.

उन्होंने बताया कि जुलाई माह में 20-30 मिमी वर्षा होने पर दो दो फुट की दूरी पर 1.5 से 2 इंच की गहराई में देसी कम्पोस्ट खाद तथा बीजों को मिलाकर मशीन की मदद से बुआई की गई. कुल 1-1.5 किलोग्राम प्रति एकड़ के आधार पर फसल की बुवाई की गई. डी कुमार ने बताया कि फसल को जल्द पकाने के लिये उन्नत किस्मों के बीज का चुनाव किया गया. मोठ के लिये माजरी मोठ—2, मूंग के लिये आईपीएम 2—3, बाजरे के लिए शंकर एएम पी एएम एच—17 का चुनाव किया गया. उन्होंने बताया कि नई तकनीक और उन्नत बीज के कारण 2.5 क्विंटल से लेकर तीन क्विटंल प्रति एकड़ पैदावार हुई है. इन बीजों से तैयार की गई फसल 60 दिनों में तैयार हो गई है. खास बात यह भी है कि इस दौरान किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल नहीं किया गया.