केंद्र की मोदी सरकार ने गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है. सामान्य वर्ग के गरीबों के आरक्षण से जुड़ा बिल मंगलवार को लोकसभा में पास हो गया. बुधवार को करीब 10 घंटे तक चली जोरदार बहस के बाद बिल राज्यसभा में भी पास हो चुका है. दोनों सदनों से भले ही इस बिल को ग्रीन सिग्नल मिल हो गया हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या फैसला देगा यह बड़ा सवाल है. क्या यह बिल SC में टिक पाएगा ? क्यों कि शीर्ष अदालत पहले ही यह बात साफ कर चुकी है कि आरक्षण किसी भी स्थिति में आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता.
एक तरफ सुप्रीम कोर्ट जहां आरक्षण की सीमा 50 फीसदी बता चुका है वहीं केंद्र सरकार द्वारा गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी सीटें आरक्षित करने से आरक्षण 60 फीसदी तक हो जाएगा. लोकसभा में मंगलवार को इस मुद्दे पर जोरदार बहस हुई. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि गरीब सर्वणों के आरक्षण से SC के 50 फीसदी आरक्षण के नियम का उल्लंघन नहीं होगा.
वित्त मंत्री ने दिया यह तर्क
वित्त मंत्री ने सदन में आरक्षण का गणित समझाते हुए कहा "सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी की जो सीमा लगाई है वो सीमा केवल जाति आधारित आरक्षण के लिए लगाई. इसके लिए तर्क ये था कि सामान्य वर्ग के लिए कम से कम 50 फीसदी तो छोड़ी जाएं नहीं तो एक वर्ग को उबारने के लिए दूसरे वर्ग के साथ भेदभाव हो जाता. इस लिहाज से मौजूदा बिल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के पीछे की भावना के खिलाफ नहीं है. '' वित्त मंत्री के अनुसार यह बिल सुप्रीम कोर्ट में पास हो जाएगा. क्यों कि इस बिल में SC के किसी नियम का उल्लंघन नहीं हो रहा है. 10 फीसदी आरक्षण समाज के उसी वर्ग को दिया जा रहा है जिससे ध्यान में रखते हुए आरक्षण की सीमा निर्धारित की गई थी, और यह आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया जा रहा है. यह भी पढ़ें- 28 साल पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने लिया था सवर्णो को आरक्षण देने का फैसला, SC ने किया रद्द
गौरतलब है कि अब तक भारत के संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है. यही वजह रही कि 1991 में जब पीवी नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसद आरक्षण देने का प्रस्ताव किया था तो सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने उसे खारिज कर दिया था. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि "संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक गैर-बराबरी दूर करने के मकसद से रखा गया है, लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता".
इंदिरा साहनी केस
इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के नाम से चर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. अपने फैसले में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान की विस्तृत व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- "संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है, न कि व्यक्ति के लिए. आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता".
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान सभा में दिए गए डॉ. आंबेडकर के बयान का हवाला देते हुए सामाजिक बराबरी और अवसरों की समानता को सर्वोपरि बताया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के बाद राजस्थान, गुजरात, हरियाणा जैसे राज्यों की सरकारों के इसी तरह के फैसलों को उन राज्यों की हाई कोर्टों ने भी खारिज किया. इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी सूरत में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय भी देखना होगा.
विरोधियों ने बताया असंवैधानिक
सवर्ण आरक्षण पर विरोधियों का मानना है कि सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण लाने की सरकार की योजना, संविधान के मूल सिद्धांतों के विपरीत है. संविधान ने केवल उन जातियों को आरक्षण दिया है कि जिन्हें जातीय आधार पर सदियों से सामाजिक पिछड़ेपन का सामना करना पड़ा.'इस कोटा को लागू कर पाने में तमाम कानूनी अड़चने हैं. यह कोटा वर्तमान में मौजूद 50 फीसदी आरक्षण की सीमा से ऊपर होगा.