नयी दिल्ली, 29 दिसंबर वर्ष 2024 का समापन अब तक के सबसे गर्म वर्ष के रूप में होगा तथा ऐसा पहला वर्ष होगा जब वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा।
इस वर्ष को इस बात के लिए भी याद रखा जायेगा कि जब विकसित देशों के पास ‘ग्लोबल साउथ’ में जलवायु कार्रवाई को वित्तपोषित करके विश्व को इस महत्वपूर्ण सीमा को स्थायी रूप से पार करने से रोकने का आखिरी बड़ा मौका था और उन्होंने इसे गंवा दिया।
‘ग्लोबल साउथ’ शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर आर्थिक रूप से कम विकसित देशों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।
लगातार बढ़ते तापमान के कारण रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, भयानक तूफान और बाढ़ आईं, जिससे 2024 में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लाखों घर नष्ट हो गये। लाखों लोग विस्थापित हो गये और सभी की निगाहें अजरबैजान के बाकू में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन पर टिकी थीं, जहां उन्हें जलवायु वित्त पैकेज की उम्मीद थी, जो ‘ग्लोबल साउथ’ में कार्रवाई को गति दे पाता।
विकसित देशों - जिन्हें संयुक्त राष्ट्र जलवायु व्यवस्था के तहत विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई को वित्तपोषित करने का दायित्व सौंपा गया है - ने 2035 तक मात्र 300 अरब अमेरिकी डॉलर की पेशकश की है।
भारत ने नये जलवायु वित्त पैकेज को ‘‘बहुत छोटा, बहुत दूरगामी’’ बताया था।
विकासशील देशों के सामने एक कठिन विकल्प था: अगले वर्ष वार्ता की मेज पर लौटें या कमजोर समझौते को स्वीकार करें।
2025 में ‘जलवायु परिवर्तन को नकारने वाले’ डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी और पेरिस समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने के कारण और भी बदतर परिणाम की आशंका के कारण, ग्लोबल साउथ ने अनिच्छा से इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
एक पूर्व भारतीय वार्ताकार ने ‘पीटीआई-’ को बताया, ‘‘विकासशील देशों को लगा कि उन्हें एक कमजोर समझौते को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।’’
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