हमारे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है और इससे धरती गर्म हो रही है. हालांकि, ऐसी तकनीक है जिससे वायुमंडल में उत्सर्जित होने वाले कार्बन को कैप्चर करके उसे धरती के भीतर इकट्ठा किया जा सकता है.कार्बन डाइऑक्साइड पृथ्वी के वायुमंडल का प्राकृतिक और महत्वपूर्ण हिस्सा है. हालांकि, औद्योगिक क्रांति की शुरुआत यानी 200 साल पहले की तुलना में वायुमंडल में इसकी सघनता 50 फीसदी बढ़कर 422 पार्ट प्रति मिलियन (पीपीएम) हो गई है.
औद्योगिक क्रांति के बाद से इंसानी गतिविधियों ने धरती को गर्म करने वाले इस गैस की मात्रा को वायुमंडल में खतरनाक स्तर तक बढ़ा दिया है. इसमें सबसे बड़ा योगदान जीवाश्म ईंधन का है और हमने इस उत्सर्जन को कम करने के लिए भी बहुत ज्यादा प्रयास नहीं किए हैं.
जैसे-जैसे कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैस वायुमंडल में बढ़ती हैं, वे एक कंबल के तौर पर काम करती हैं. वे सूरज से आने वाली गर्मी को रात में वापस अंतरिक्ष में जाने से रोकती हैं. इससे धरती गर्म हो जाती है.
कार्बन कैप्चर और स्टोरेज क्या है?
सामान्य तौर पर, पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं और वायुमंडल में उसकी मात्रा कम करते हैं. महासागर और मिट्टी भी सीओ2 को अवशोषित करती हैं, लेकिन इनकी भी अपनी एक सीमा है. इनकी मदद से सीओ2 की मात्रा को तुरंत कम नहीं किया जा सकता. वहीं, हम वनों की लगातार कटाई कर रहे हैं और कीटनाशकों का काफी ज्यादा इस्तेमाल कर मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं. इससे सीओ2 को अवशोषित करने की क्षमता कम हो रही है.
ऐसे में एक नई तकनीक का ईजाद किया गया है जिसके जरिए वायुमंडल में कार्बन पहुंचने से पहले ही उसे कैप्चर करके इकट्ठा किया जा सकता है. इस तकनीक का नाम है सीएसएस (कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज). सबसे पहले 1970 में यह तकनीक लॉन्च की गई थी. हालांकि, स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं की वजह से यह प्रक्रिया विवादास्पद बनी हुई है.
इस प्रक्रिया के दौरान पाइप लीक होने से इंसानों या जानवरों को सांस लेने में समस्या हो सकती है और यहां तक कि उनकी मौत भी हो सकती है. पीने का पानी दूषित हो सकता है. साथ ही, जमीन में इकट्ठा किए जाने वाले सीओ2 की वजह से भूकंप आने का भी खतरा है. फिलहाल, जर्मनी में इस तकनीक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है.
सीएसएस तकनीक कैसे काम करती है?
इस तकनीक के जरिए वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड पहुंचने से पहले ही कैप्चर कर लिया जाता है. इसे प्वाइंट-सोर्स कैप्चर कहा जाता है. इसमें कोयले या प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन के जलने या स्टील कारखानों, रिफाइनरी, सीमेंट और उर्वरक संयंत्रों से निकलने वाली अन्य गैसों से कार्बन डाइऑक्साइड को कृत्रिम तरीके से अलग किया जाता है. दहन से पहले भी ईंधन से सीओ2 को हटाया जा सकता है, लेकिन यह एक अलग तकनीक है.
सीओ2 को कैप्चर करने के बाद उसे तरल अवस्था में बदला जाता है और भंडारण स्थल पर ले जाया जाता है. यह आम तौर पर जमीन के काफी अंदर होता है. जैसे, ऐसी जगह जहां पहले तेल या गैस का भंडार था, लेकिन अब उसका इस्तेमाल बंद हो चुका है, बंद हो चुकी कोयला खदानें वगैरह.
वहीं, वायुमंडल में मौजूद कार्बन को भी सीधे तौर पर कैप्चर करने की तकनीक मौजूद है. इसमें फिल्टर और रसायनों का इस्तेमाल करके सीधे हवा से कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर किया जाता है. इसे कार्बन स्टोरेज या डायरेक्ट एयर कैप्चर विद कार्बन स्टोरेज (डीएसीसीएस) कहा जाता है. हालांकि, यह काम काफी खर्चीला है और इसके लिए बहुत ज्यादा ऊर्जा की भी जरूरत होती है.
कार्बन को कैप्चर करने का एक अन्य तरीका है बीईसीसीएस यानी बायोएनर्जी विद कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज. इसमें ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए बायोमास को जलाया जाता है. इस बायोमास में लकड़ी, फसल या कृषि के अपशिष्ट या शहरों से निकलने वाले कचरे शामिल हैं, जिनमें कैप्चर किया गया कार्बन होता है. इस बायोमास को जलाने से जो उत्सर्जन होता है उसे कैप्चर करके जमीन में इकट्ठा किया जाता है.
वनों और फसलों को प्रबंधित तरीके से लगाने और उनके प्रसंस्करण से भी कार्बन को इकट्ठा किया जा सकता है. हालांकि, इन फसलों को लगाने के लिए हमें उस पानी और जमीन का इस्तेमाल करना होगा जिससे हम भोजन के लिए अन्न उपजाते हैं.
इन सब के बीच सबसे अहम बात यह है कि सभी तकनीकों का इस्तेमाल आज भी सीमित तौर पर किया जाता है. अधिकांश तकनीकों का परीक्षण बड़े पैमाने पर नहीं किया गया है.
कार्बन कैप्चर और भंडारण क्यों मायने रखता है?
जनवरी 2023 में जारी विशेषज्ञों की रिपोर्ट के मुताबिक, भले ही हम निकट भविष्य में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में भारी कटौती करें, फिर भी दुनिया को 2100 तक 450 अरब से 1.1 ट्रिलियन मीट्रिक टन सीओ2 हटाने की जरूरत होगी.
यूएन पर्यावरणीय मामलों की समिति आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) ने 2022 में कहा कि अगर दुनिया नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्यों को हासिल करना चाहती है, तो सीओ2 हटाने वाली तकनीकों का इस्तेमाल "अवश्य" करना होगा.
वहीं दूसरी ओर, विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इस क्षेत्र को अगले 10 वर्षों में काफी ज्यादा विकसित करने की जरूरत होगी. वर्तमान शोध से पता चलता है कि वैश्विक उत्सर्जन का सिर्फ 0.1 फीसदी ही ऐसी तकनीकों से कैप्चर किया जाता है.
नवंबर 2023 में, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी थी कि तेल और गैस उत्पादकों को "इस भ्रम को दूर करने की जरूरत है कि बड़ी मात्रा में कार्बन कैप्चर करना ही समस्या का समाधान है."
आलोचकों का कहना है कि सीएसएस तकनीक जीवाश्म ईंधन उत्पादकों को तेल, गैस और कोयले का दोहन जारी रखने की हरी झंडी देता है. वे कहते हैं, "बेहतर समाधान यह है कि जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम किया जाए और जितनी जल्दी हो सके उसके इस्तेमाल को पूरी तरह बंद किया जाए."