
नयी दिल्ली, 13 मार्च एक अध्ययन में पाया गया है कि विभिन्न क्षेत्रों में एकतरफा कार्बन सीमा समायोजन तंत्र जैसी नीतियों के कार्यान्वयन से निर्यातकों की लागत बढ़ सकती है, व्यापार संबंध जटिल हो सकते हैं और संभावित रूप से सहयोगात्मक वैश्विक जलवायु प्रयास कमजोर हो सकते हैं।
भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) लखनऊ और इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी (आईएमटी) गाजियाबाद के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, यूरोपीय संघ का कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (सीबीएएम) वित्तीय, तकनीकी और क्षमता संबंधी बाधाओं के कारण भारत के लघु और मध्यम आकार के इस्पात उद्यमों के लिए चुनौतियां उत्पन्न कर सकता है।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह जानने की कोशिश की कि क्या यूरोपीय संघ अपनी नीतियों को सीमा पार लागू कर सकता है, जिसे "ब्रसेल्स इफेक्ट" कहा जाता है।
अगर यूरोपीय संघ अपनी कार्बन सीमा नीति को लागू करता है, तो क्या इससे भारत के इस्पात उद्योगों में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि एकीकृत इस्पात संयंत्र अपने उत्पादन को इस तरह से बदल सकते हैं ताकि वे यूरोपीय संघ के बाजार के लिए कम-कार्बन इस्पात बना सकें, लेकिन छोटे और मझोले स्टील उद्योगों को पैसों, तकनीकी क्षमता और संसाधनों की कमी के कारण मुश्किलें आ सकती हैं।
आईआईएम-लखनऊ के 'सेंटर फॉर बिजनेस सस्टेनेबिलिटी' के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर कौशिक रंजन बंद्योपाध्याय और आईएमटी-गाजियाबाद के प्रोफेसर एवं येल विश्वविद्यालय की फुलब्राइट-कलाम क्लाइमेट विजिटिंग फेलो कस्तूरी दास द्वारा सह-लिखित इस अध्ययन के निष्कर्ष प्रतिष्ठित 'जर्नल इंटरनेशनल एनवायरनमेंटल एग्रीमेंट्स: पॉलिटिक्स, लॉ एंड इकोनॉमिक्स' में प्रकाशित हुए हैं।
यूरोपीय संघ ने यह तर्क किया कि सीबीएएम कार्बन रिसाव को रोकने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने को बढ़ावा देगा, लेकिन अध्ययन ने इसके वास्तविक-विश्व प्रभावों की आलोचनात्मक जांच की, विशेष रूप से समानता और व्यवहार्यता के संदर्भ में।
बंद्योपाध्याय ने 'पीटीआई-' को बताया, "शोध दल ने पाया कि बड़े एकीकृत इस्पात संयंत्र अपने उत्पादन को इस तरह से अनुकूलित कर सकते हैं कि वे यूरोपीय संघ के बाजार के लिए कम-कार्बन वाले इस्पात की आपूर्ति कर सकें।
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