
एक नई स्टडी में पाया गया है कि कोरोना महामारी के दौरान लगे प्रतिबंधों के कारण कई युवा आज भी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं. पांच साल बाद भी कई लोग एंग्जाइटी और डिप्रेशन से जूझ रहे हैं.21 वर्षीया लेना (बदला हुआ नाम) जर्मनी में कोविड-19 लॉकडाउन के बारे में बात करने से हिचकती हैं. जिस समय पूरे देश में स्कूल बंद कर दिए गए थे. अपनी उम्र के बाकी लोगों की तरह वह भी उस समय को याद नहीं करना चाहती है.
फिलहाल वह जर्मनी के दक्षिणी हिस्से में पढ़ने वाली लेना हमेशा से टीचर बनना चाहती थी, लेकिन अब नहीं. पहले वह पढ़ाई में अच्छी हुआ करती थी और स्कूल जाना उन्हें पसंद था, लेकिन यह सब महामारी से पहले की बात है.
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लेना कहती है, "लॉकडाउन ने हमारी जिंदगी उथल-पुथल कर दी थी. हम दोस्तों से नहीं मिल सकते थे. सभी बस अपने फोन से चिपके रहते थे." पहले की तरह वॉलीबॉल खेलने की बजाय लॉकडाउन के दौरान टीवी-सीरीज देखने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था. हालांकि बाद में ऑनलाइन क्लासेस शुरू हुई, लेकिन वह भी तनावपूर्ण थी. लेना ने कहा, "स्कूल सिर्फ पढ़ाई के लिए नहीं होता. किसी को हमारी परवाह ही नहीं थी. हम पूरी तरह अकेले पड़ गए थे."
अब वह किसी तरह उस बुरे समय को पीछे छोड़ आई हैं. लेकिन उनको लगता है कि उनके कुछ पुराने क्लासमेट और जान-पहचान वाले अब थोड़े "अजीब” हो गए हैं.
अलगाव, अकेलेपन और बेबसी का एहसास
लेना की तरह ज्यादातर युवाओं ने कोविड-19 लॉकडाउन को इसी तरह महसूस किया. यह बात लंबे समय तक चली कई स्टडीज से भी साबित हुई है, जिसमें सबीने आंद्रेसन, जर्मनी के चाइल्ड प्रोटेक्शन एसोसिएशन की अध्यक्षा ने अहम भूमिका निभाई.
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उन्होंने बताया कि कई युवाओं को लगा कि उनकी परेशानियों को नजरअंदाज किया गया है. आंद्रेसन ने समझाया, "हमें कोई नहीं देखता, कोई हमारी बात नहीं सुनता. हमारे हित, अधिकार और जरूरतें मुश्किल घड़ी में नजरअंदाज कर दी जाती हैं."
आंद्रेसन ने प्रोटेस्टेंट प्रेस सर्विस (ईपीडी) को बताया, "यह अकेलेपन और बेबसी की भावना से जुड़ा है. ऐसा लग रहा था जैसे अचानक हमारी जिंदगी छीन ली गई हो. हमें समझ ही नहीं आया कि हमसे क्या छीना जा रहा है और हम अपना भविष्य कैसे बना सकते हैं?" उन्होंने आगे बोला, "युवाओं को भी अपने भविष्य की चिंता होती हैं."
एंग्जायटी, डिप्रेशन और याददाश्त से जुड़ी परेशानियां
डारीना फाल्बोवा, कोमेनियस यूनिवर्सिटी की एंथ्रोपोलॉजिस्ट, ने स्लोवाकिया के किशोरों पर एक अध्ययन किया. इस अध्ययन में लॉकडाउन के बाद लंबे समय तक बने रहने वाले मानसिक और शारीरिक प्रभावों को समझने की कोशिश की गई.
फाल्बोवा ने बताया, "स्कूल बंद होने, दोस्तों से मिलने पर रोक और कर्फ्यू ने युवाओं में मानसिक समस्याओं को बढ़ा दिया है जिसमें सबसे आम समस्या है, याददाश्त कमजोर होना, ध्यान केंद्रित करने में दिक्कत आना, समस्याओं को हल करने में परेशानी होना और बात करते समय सही शब्द न मिल पाना.”
इन समस्याओं का असर महिलाओं पर ज्यादा देखा गया. फाल्बोवा ने बताया, "शारीरिक समस्याएं जैसे कमजोरी और सिरदर्द भी सामने आई." कई अन्य अध्ययनों में पाया गया कि कई किशोर लॉकडाउन के पांच साल बाद, अब भी खानपान से जुड़ी समस्याओं, एंग्जाइटी और डिप्रेशन से जूझ रहे हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि लॉकडाउन के दौरान स्क्रीन टाइम का बढ़ना, शारीरिक गतिविधियों का कम होना और नींद की समस्या ने मानसिक और शारीरिक सेहत पर बुरा असर डाला. इसके अलावा, महिलाओं के पीरियड्स में भी अनियमितता देखी गई, जो तनाव और कोविड-19 के बाद हार्मोनल बदलाव से जुड़ा हो सकता है.
पहले से ही तनावग्रस्त युवाओं पर लॉकडाउन ने बढ़ाया बोझ
फाल्बोवा ने बताया कि साल 2020 से पहले भी युवाओं में मानसिक समस्या आम थी. पढ़ाई का दबाव, सोशल मीडिया, जलवायु चिंता और आर्थिक अनिश्चितता पहले ही डिप्रेशन और चिंता का कारण बने हुए थे.
कोरोना महामारी ने पहले से ही मौजूद मानसिक समस्याओं को और बढ़ा दिया. हाल में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि चिंता, डिप्रेशन और याददाश्त से जुड़ी परेशानियां युवाओं में काफी ज्यादा बढ़ गई. महामारी के दौरान और उसके बाद भी युवाओं की चिंताओं को गंभीरता से नहीं लिया गया.
फाल्बोवा ने बताया कि युवाओं पर कम ध्यान दिया गया क्योंकि उन्हें कोविड से गंभीर बीमारी का कम खतरा था, लेकिन उनके मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा और भविष्य पर पड़ने वाले असर को नजरअंदाज कर दिया गया."
भविष्य के लिए सीख
कोविड-19 महामारी के नियमों का पूरा मूल्यांकन अभी बाकी है. लेकिन अब जब हम पीछे देखते हैं, तो लॉकडाउन के कुछ नियम जरूरत से ज्यादा सख्त थे. फाल्बोवा ने कहा, "महामारी ने हमें सिखाया कि स्वास्थ्य बेहद जरूरी है लेकिन युवाओं पर पड़ने वाले असर को नजरअंदाज किया गया. सबसे जरूरी सीख यह है कि मानसिक स्वास्थ्य को भी शारीरिक स्वास्थ्य जितनी ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए."
अगर भविष्य में कोई नई महामारी, जानवरों से फैलने वाली बीमारी या बर्ड फ्लू के कारण आती है, तो "समाज और सरकार को बच्चों और किशोरों के लिए ज्यादा संतुलित और सोच-समझकर फैसले लेने होंगे.”
फाल्बोवा ने कहा, "आने वाले समय में, सरकारों को ऐसी योजनाएं बनानी होंगी, जिससे लोग सुरक्षित तरीके से एक दूसरे के साथ संपर्क बना सकें, चाहे बाहर जाने की अनुमति के जरिये, सपोर्ट ग्रुप या सामुदायिक कार्यक्रम शुरू करने के माध्यम से किया जाए."